Wednesday 28 October 2015

मुनव्वर राना और शायरी

“मैं इक फकीर के होंठों की मुस्कुराहट हूँ
किसी से भी मेरी कीमत अदा नहीं होती “
जिनाब मुनव्वर राना साहब का यह शेर उनकी शख्सियत पर सौ फी सदी खरा उतरता है। उनकी लाजवाब शायरी,उस शायरी को पेश करने का दिलकश अन्दाज़, उस अंदाज़ को जज़बात देती बुलन्द आवाज़ सब मिलकर इस कदर मुतासिर करते है कि सुनने वाला बेहिचक कह उठता है—
“धुल गई है रूह लेकिन दिल को यह एहसास है,
ये सकूँ बस चंद लम्हों को ही मेरे पास है।“

मुशहरे और काव्य-गोष्ट्ठियों में कहकहे और ठहाके तो अक्सर सुनाई देते है पर आखों में नमी, मुनव्वर राना जैसे हुनरमंद ही ला पाते है। दर्द के एहसास की तपिश जब दिल को तपाती है तभी आँसू टपकता है। मुसल्सल टीस की चोट से गढ़ी गई गज़लों की गूँज ताउमर साथ चलती है। राना साहब की शायरी भी अपनों की जुदाई के गम से तप कर निकली है इसी लिए सीधे दिल पर असर करती है। अपनी किताब ‘माँ‘ में आप कहते है–” बचपन में मुझे सूखे की बिमारी थी, शायद इसी सूखे का असर है कि आज तक मेरी ज़िन्दगी का हर कुआं खुश्क है, आरज़ू का ,दोस्ती का, मोहब्बत का, वफ़ादारी का। मेरी हंसी मेरे आंसूयों की बिगड़ी हुई तस्वीर है, मेरे एहसास की भटकती हुई आत्मा है। मेरी हंसी ‘इंशा‘ की खोखली हँसी, ‘मीर‘ की खामोश उदासी, और‘ग़ालिब‘ के ज़िद्दी फक्कड़पन से बहुत मिलती जुलती है। “


मेरी हँसी तो मेरे गमों का लिबास है
लेकिन ज़माना कहाँ इतना गम-श्नास है
हम न दिल्ली थे न मज़दूर की बेटी लेकिन
काफ़िले जो भी इधर आए हमें लूट गए
कच्चे समर शजर से अलग कर दिए गए
हम कमसिनी में घर से अलग कर दिए गए
मुझे सभांलने वाला कहाँ से आएगा
मैं गिर रह हूँ पुरानी इमारतों की तरह
ज़रा सी बात पर आँखें बरसने लगती थी
कहाँ चले गए वो मौसम  चाहतों वाले
हमारे कुछ गुनाहों की सज़ा भी साथ चलती है
हम अब तन्हा नहीं चलते दवा भी साथ चलती है।
मैं पटरियों की तरह ज़मी पर पड़ा रहा
सीने से गम गुज़रते रहे रेल की तरह

बेबसी के आलम में भी वो खुद्दारी की बात करते है–

चमक ऐसे नहीं आती है खुद्दारी के चेहरे पर
अना को हमने दो दो वक्त का फाका कराया है
दिल ऐसा कि सीधे किए जूते भी बड़ों के
ज़िद इतनी कि खुद ताज उठा कर नहीं पहना
मियां मै शेर हूँ शेरों की गुर्राहट नहीं जाती
मैं लहजा नरम भी कर लूँ तो झुंझलाहट नही जाती



राना साहब की शायरी में जहाँ दर्द का एहसास है, खुद्दारी है, वहीं ऱिश्तों का एहतराम भी है। उन्होंने तकरीबन हर रिश्ते की अच्छाई और बुराई को अपने शेरों में तोला है। बुज़ुर्गों के बारे में वो बड़ी बेबाकी से एक तरफ कहते है–
खुद से चलकर नहीं ये तर्ज़े सुखन आया है,
पांव दाबे है बुज़ुर्गों के तो फन आया है।
मेरे बुज़ुर्गों का साया था जब तलक मुझ पर
मैं अपनी उमर से छोटा दिखाई देता रहा।


जबकि दूसरी ओर कहते है—
मेरे बुज़ुर्गों को इसकी खबर नहीं शायद
पनप सका नहीं जो पेड़ बरगदों में रहा।
इश्क में राय बुज़ुर्गों से नहीं ली जाती
आग बुझते हुए चूल्हों से नहीं ली जाती


बच्चों के लिए उनकी राय है कि—
हवा के रुख पे रहने दो ये जलना सीख जाएगा
कि बच्चा लड़खड़ाएगा तो चलना सीख जाएगा
इन्हें अपनी ज़रूरत के ठिकाने याद रहते है
कहाँ पर है खिलौनों की दुकां बच्चे समझते है।



दो भाईयों के प्यार और रंजिश को वो यूँ देखते है–
अब मुझे अपने हरीफ़ों से ज़रा भी डर नहीं
मेरे कपड़े भाइयों के जिस्म पर आने लगे।
तन्हा मुझे कभी न समझना मेरे हरीफ़
एक भाई मर चुका है मगर एक घर में है


जो लोग कम हो तो कांधा ज़रूर दे देना
सरहाने आकर मगर भाई भाई मत करना
आपने खुलके मोहब्बत नहीं की है हमसे
आप भाई नहीं कहते है मियाँ कहते है
कांटो से बच गया था मगर फूल चुभ गया
मेरे बदन में भाई का त्रिशूल चुभ गया


बहनों और बेटियों के प्रति ज़िम्मेवारी समझाते हुये उनके ये शेर हमारे समाज में लड़कियों की नाज़ुक स्थिती पर भी रोशनी डाल जाते है–
किस दिन कोई रिश्ता मेरी बहनों को मिलेगा
कब नींद का मौसम मेरी आँखों को मिलेगा
बड़ी होने लगी है मूरतें आंगन में मिट्टी की
बहुत से काम बाकी है संभाला ले लिया जाए
ऐसा लगता है कि जैसे खत्म मेला हो गया
उड़ गई आंगन से चिड़ियां घर अकेला हो गया।
तो फिर जाकर कहीं माँ-बाप को कुछ चैन पड़ता है
कि जब ससुराल से घर आ के बेटी मुस्कुराती है


देवर-भाबी की चुहल बाज़ी देखिए–
ना कमरा जान पाताा है न अंगनाई समझती है
कहाँ देवर का दिल अटका है भौजाई समझती है


माँ के लिए लिखे गये उनके शेर माँ की ममता के लहराते सागर से निकाले गये बेशकीमती मोती है इन मोतियों को उन्होंने ” माँ ” नामक संकलन की अंजुलि में भर, दुनिया की हर माँ के चरणों में अर्पित कर दिया है। यह किताब समर्पित है–” हर उस बेटे के नाम जिसे माँ याद है।” क्योंकि वे कहते है– ” मैं दुनिया के सबसे मुकद्दस और अज़ीम रिश्ते का प्रचार सिर्फ इसलिए करता हूँ कि अगर मेरे शेर पढ़ कर कोई भी बेटा माँ की खिदमत और ख्याल करने लगे तो शायद इसके बदले में मेरे कुछ गुनाहों का बोझ हल्का हो जाए“। उनके अनुसार—


इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है
माँ बहुत गुस्से में होती है तो रो देती है।
अभी ज़िंदा है माँ मेरी, मुझे कुछ भी नहीं होगा
मैं घर से जब निकलता हूँ दुआ भी साथ चलती है
जब भी कश्ती मेरी सैलाब में आ जाती है
माँ दुआ करती हुई ख्वाब में आ जाती है
ऐ अंधेरे देख ले मुंह तेरा काला हो गया
माँ ने आँखें खोल दी घर में उजाला हो गया
लबों पर उसके कभी बददुआ नहीं होती
बस एक माँ है जो मुझसे खफ़ा नहीं होती
‘मुनव्वर‘ माँ के आगे यूँ कभी खुलकर नहीं रोना
जहाँ बुनियाद हो इतनी नमी अच्छी नहीं होती


जन्म-दातीी से ऊपर उठ कर उनकी शायरी जन्म-भूमि की इबादत करती हुई कहती है—
तेरे आगे माँ भी मौसी जैसी लगती है
तेरी गोद में गंगा-मैया अच्छा लगता है
यहीं रहूंगा कहीं उम्र भर न जाऊंगा
ज़मीन माँ है इसे छोड़ कर न जाऊँगा
पैदा यहीं हुया हूँ यहीं पर मरूंगा मैं
वो और लोग थे जो कराची चले गए
मैं मरूंगा तो यहीं दफ्न किया जाऊंगा
मेरी मिट्टी भी कराची नहीं जाने वाली
फिर उसको मर के भी खुद से जुदा होने नहीं देती
यह मिट्टी जब किसी को अपना बेटा मान लेती है।


यह उनका माँ से मोहब्बत का जज़बा था, उनकी सोच की गहराई थी, रिश्तों का एहसास था जो उन्होंने अपनी पुस्तक ” माँ ” को किसी को भेंट देते वक्त,उस पर औटोग्राफ देने से यह कह कर मना कर दिया – “माफ़ कीजिए, मैं माँ पर दस्ख़त नही करता।” अकबर इलाहाबादी ने शायद सही कहा था–
सखुन- सज्जी का क्या कहना मगर ये याद रख अकबर
जो सच्ची बात होती है वही दिल में उतरती है।
"माँ"
लबो पर उसके कभी बददुआ नहीं  होती
बस एक माँ है जो कभी खफा नहीं होती

इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है
माँ बहुत गुस्से में होती है तो रो देती है

मैंने रोते हुए पोंछे थे किसी दिन आंसू
मुद्दतों माँ ने नहीं धोया दुपट्टा अपना

अभी ज़िंदा है माँ मेरी मुझे कुछ भी नहीं होगा
मैं जब घर से निकलता हूँ दुआ भी साथ चलती है

जब भी कश्ती मेरी सैलाब में आ जाती है
माँ दुआ करती हुई ख्वाब में आ जाती है

ए अँधेरे देख ले मुँह तेरा काला हो गया
माँ ने आँखें खोल दी घर में उजाला हो गया

मेरी ख्वाहिश* है की मैं फिर से फरिश्ता हो जाऊँ
माँ से इस तरह लिपटूँ कि बच्चा हो जाऊँ

माँ के आगे यूँ कभी खुलकर नहीं रोना
जहाँ बुनियाद हो इतनी नमी अच्छी नहीं होती

लिपट जाता हूँ माँ से और मौसी मुस्कुराती है
मैं उर्दू में ग़ज़ल कहता हूँ हिंदी मुस्कराती है

ख्वाहिश  =  इच्छा

बुलंदी देर तक किस शख्श के हिस्से में रहती है

बुलंदी देर तक किस शख्श के हिस्से में रहती है
बहुत ऊँची इमारत हर घडी खतरे में रहती है

ये ऐसा क़र्ज़ है जो मैं अदा कर ही नहीं सकता,
मैं जब तक घर न लौटूं, मेरी माँ सज़दे में रहती है

जी तो बहुत चाहता है इस कैद-ए-जान से निकल जाएँ हम
तुम्हारी याद भी लेकिन इसी मलबे में रहती है

अमीरी रेशम-ओ-कमख्वाब में नंगी नज़र आई
गरीबी शान से एक टाट के परदे में रहती है

मैं इंसान हूँ बहक जाना मेरी फितरत में शामिल है
हवा भी उसको छू के देर तक नशे में रहती है

मोहब्बत में परखने जांचने से फायदा क्या है
कमी थोड़ी बहुत हर एक के शज़र* में रहती है

ये अपने आप को तकसीम* कर लेते है सूबों में
खराबी बस यही हर मुल्क के नक़्शे में रहती है

शज़र  =  पेड़
तकसीम  =  बांटना

बहुत पानी बरसता है तो मिट्टी बैठ जाती है

बहुत पानी बरसता है तो मिट्टी बैठ जाती है
न रोया कर बहुत रोने से छाती बैठ जाती है

यही मौसम था जब नंगे बदन छत पर टहलते थे
यही मौसम है अब सीने में सर्दी बैठ जाती है

चलो माना कि शहनाई मोहब्बत की निशानी है
मगर वो शख्स जिसकी आ के बेटी बैठ जाती है ?

बढ़े बूढ़े कुएँ में नेकियाँ क्यों फेंक आते हैं ?
कुएं में छुप के क्यों आखिर ये नेकी बैठ जाती है ?

नक़ाब उलटे हुए गुलशन से वो जब भी गुज़रता है
समझ के फूल उसके लब पे तितली बैठ जाती है

सियासत नफ़रतों का ज़ख्म भरने ही नहीं देती
जहाँ भरने पे आता है तो मक्खी बैठ जाती है

वो दुश्मन ही सही आवाज़ दे उसको मोहब्बत से
सलीक़े से बिठा कर देख हड्डी बैठ जाती है

सब के कहने से इरादा नहीं बदला जाता

सब के कहने से इरादा नहीं बदला जाता
हर सहेली से दुपट्टा नहीं बदला जाता

हम तो शायर हैं सियासत नहीं आती हमको
हम से मुंह देखकर लहजा नहीं बदला जाता

हम फकीरों को फकीरी का नशा रहता हैं
वरना क्या शहर में शजरा* नहीं बदला जाता

ऐसा लगता हैं के वो भूल गया है हमको
अब कभी खिडकी का पर्दा नहीं बदला जाता

जब रुलाया हैं तो हसने पर ना मजबूर करो
रोज बीमार का नुस्खा नहीं बदला जाता

गम से फुर्सत ही कहाँ है के तुझे याद करू
इतनी लाशें हैं तो कान्धा नहीं बदला जाता

उम्र एक तल्ख़ हकीकत हैं दोस्तों फिर भी
जितने तुम बदले हो उतना नहीं बदला जाता

शजरा  =  वंश क्रम का चार्ट

इश्क है तो इश्क का इजहार होना चाहिये
इश्क है तो इश्क का इजहार होना चाहिये
आपको चेहरे से भी बीमार होना चाहिये

आप दरिया हैं तो फिर इस वक्त हम खतरे में हैं
आप कश्ती हैं तो हमको पार होना चाहिये

ऐरे गैरे लोग भी पढ़ने लगे हैं इन दिनों
आपको औरत नहीं अखबार होना चाहिये

जिंदगी कब तलक दर दर फिरायेगी हमें
टूटा फूटा ही सही घर बार होना चाहिये

अपनी यादों से कहो इक दिन की छुट्टी दें मुझे
इश्क के हिस्से में भी इतवार होना चाहिये

 मुहब्बत करने वालों में ये झगड़ा डाल देती है

 मुहब्बत करने वालों में ये झगड़ा डाल देती है
सियासत दोस्ती की जड़ में मट्ठा डाल देती है

तवायफ़ की तरह अपने ग़लत कामों के चेहरे पर
हुकूमत मंदिरों-मस्जिद का पर्दा डाल देती है

हुकूमत मुँह-भराई के हुनर से ख़ूब वाक़िफ़ है
ये हर कुत्ते के आगे शाही टुकड़ा डाल देती है

कहाँ की हिजरतें कैसा सफ़र कैसा जुदा होना
किसी की चाह पैरों में दुपट्टा डाल देती है

ये चिड़िया भी मेरी बेटी से कितनी मिलती-जुलती है
कहीं भी शाख़े-गुल देखे तो झूला डाल देती है

भटकती है हवस दिन-रात सोने की दुकानों में
ग़रीबी कान छिदवाती है तिनका डाल देती है

हसद* की आग में जलती है सारी रात वह औरत
मगर सौतन के आगे अपना जूठा डाल देती है

हिज़रत  =  संकट के समय अपनी जन्म-भूमि छोड़कर कहीं दूसरी जगह चले जाना, देश-त्याग, मुहम्मद साहब के जीवन की वह घटना जिसमें वे अपनी जन्म-भूमि मक्का का परित्याग करके मदीने चले गये थे
* हसद  =  ईर्ष्या

जहां तक हो सका हमने तुम्हें परदा कराया है
जहां तक हो सका हमने तुम्हें परदा कराया है
मगर ऐ आंसुओं! तुमने बहुत रुसवा कराया है

चमक यूं ही नहीं आती है खुद्दारी के चेहरे पर
अना* को हमने दो दो वक्त का फाका कराया है

बड़ी मुद्दत पे खायी हैं खुशी से गालियाँ हमने
बड़ी मुद्दत पे उसने आज मुंह मीठा कराया है

बिछड़ना उसकी ख्वाहिश थी न मेरी आरजू लेकिन
जरा सी जिद ने इस आंगन का बंटवारा कराया है

कहीं परदेस की रंगीनियों में खो नहीं जाना
किसी ने घर से चलते वक्त ये वादा कराया है

खुदा महफूज रखे मेरे बच्चों को सियासत से
ये वो औरत है जिसने उम्र भर पेशा कराया है

अना  =  स्वाभिमान
महफूज  =  सलामत, सुरक्षित


घर में रहते हुए ग़ैरों की तरह होती हैं

घर में रहते हुए ग़ैरों की तरह होती हैं
बेटियाँ धान के पौधों की तरह होती हैं

उड़के एक रोज़ बड़ी दूर चली जाती हैं
घर की शाख़ों पे ये चिड़ियों की तरह होती हैं

सहमी-सहमी हुई रहती हैं मकाने दिल में
आरज़ूएँ भी ग़रीबों की तरह होती हैं

टूटकर ये भी बिखर जाती हैं एक लम्हे में
कुछ उम्मीदें भी घरौंदों की तरह होती हैं

आपको देखकर जिस वक़्त पलटती है नज़र
मेरी आँखें , मेरी आँखों की तरह होती हैं

बाप का रुत्बा भी कुछ कम नहीं होता लेकिन
जितनी माँएँ हैं फ़रिश्तों की तरह होती हैं

जब भी कश्ती मेरी सैलाब में आ जाती है
जब भी कश्ती मेरी सैलाब में आ जाती है
माँ दुआ करती हुई ख़्वाब में आ जाती है

रोज़ मैं अपने लहू से उसे ख़त लिखता हूँ
रोज़ उंगली मेरी तेज़ाब में आ जाती है

दिल की गलियों से तेरी याद निकलती ही नहीं
सोहनी फिर इसी पंजाब में आ जाती है

रात भर जागते रहने का सिला है शायद
तेरी तस्वीर-सी महताब* में आ जाती है

एक कमरे में बसर करता है सारा कुनबा
सारी दुनिया दिले- बेताब में आ जाती है

ज़िन्दगी तू भी भिखारिन की रिदा* ओढ़े हुए
कूचा - ए - रेशमो -किमख़्वाब में आ जाती है

दुख किसी का हो छलक उठती हैं मेरी आँखें
सारी मिट्टी मिरे तालाब में आ जाती है

 महताब - चाँद
     रिदा- चादर


कोई चेहरा किसी को उम्र भर अच्छा नहीं लगता

कोई चेहरा किसी को उम्र भर अच्छा नहीं लगता
हसीं है चाँद भी, शब भर अच्छा नहीं लगता

अगर स्कूल में बच्चे हों घर अच्छा नहीं लगता
परिन्दों के न होने से शजर अच्छा नहीं लगता

कभी चाहत पे शक करते हुए यह भी नहीं सोचा
तुम्हारे साथ क्यों रहते अगर अच्छा नहीं लगता
ज़रूरत मुझको समझौते पे आमादा तो करती है
मुझे हाथों को फैलाते मगर अच्छा नहीं लगता

मुझे इतना सताया है मेरे अपने अज़ीज़ों ने
कि अब जंगल भला लगता है घर अच्छा नहीं लगता

मेरा दुश्मन कहीं मिल जाए तो इतना बता देना
मेरी तलवार को काँधों पे सर अच्छा नहीं लगता

सियासी आदमी की शक्ल तो प्यारी निकलती है

सियासी आदमी की शक्ल तो प्यारी निकलती है
मगर जब गुफ्तगू करता है चिंगारी निकलती है

लबों पर मुस्कराहट दिल में बेजारी निकलती है
बडे लोगों में ही अक्सर ये बीमारी निकलती है

मोहब्बत को जबर्दस्ती तो लादा जा नहीं सकता
कहीं खिडकी से मेरी जान अलमारी निकलती है

यही घर था जहां मिलजुल के सब एक साथ रहते थे
यही घर है अलग भाई की अफ्तारी निकलती है


मैं उसको छोड़ न पाया बुरी लतों की तरह
मैं उसको छोड़ न पाया बुरी लतों की तरह
वो मेरे साथ है बचपन की आदतों की तरह

मुझे सँभालने वाला कहाँ से आएगा
मैं गिर रहा हूँ पुरानी इमारतों की तरह

हँसा-हँसा के रुलाती है रात-दिन दुनिया
सुलूक इसका है अय्याश औरतों की तरह
वफ़ा की राह मिलेगी, इसी तमना में
भटक रही है मोहब्बत भी उम्मतों की तरह

मताए-दर्द-लूटी तो लुटी ये दिल भी कहीं
न डूब जाए गरीबों की उजरतों की तरह

खुदा करे कि उमीदों के हाथ पीले हों
अभी तलक तो गुज़ारी है इद्दतों की तरह

यहीं पे दफ़्न हैं मासूम चाहतें ‘राना’
हमारा दिल भी है बच्चों की तुरबतों की तरह.

मियाँ मैं शेर हूँ शेरों की गुर्राहट नहीं जाती

मियाँ मैं शेर हूँ शेरों की गुर्राहट नहीं जाती
मैं लहजा नर्म भी कर लूँ तो झुँझलाहट नहीं जाती

मैं इक दिन बेख़याली में कहीं सच बोल बैठा था
मैं कोशिश कर चुका हूँ मुँह की कड़ुवाहट नहीं जाती

जहाँ मैं हूँ वहीं आवाज़ देना जुर्म ठहरा है
जहाँ वो है वहाँ तक पाँव की आहट नहीं जाती

मोहब्बत का ये जज्बा  जब ख़ुदा कि देन है भाई
तो मेरे रास्ते से क्यों ये दुनिया हट नहीं जाती

वो मुझसे बेतकल्लुफ़ हो के मिलता है मगर ‘राना’
न जाने क्यों मेरे चेहरे से घबराहट नहीं जाती.


 हम सायादार पेड़ ज़माने के काम आए

हम सायादार पेड़ ज़माने के काम आए
जब सूखने लगे तो जलाने के काम आए

तलवार की नियाम कभी फेंकना नहीं
मुमकिन है दुश्मनों को डराने के काम आए

कच्चा समझ के बेच न देना मकान को
शायद कभी ये सर को छुपाने के काम आए

ऐसा भी हुस्न क्या कि तरसती रहे निगाह
ऐसी भी क्या ग़ज़ल जो न गाने के काम आए

वह दर्द दे जो रातों को सोने न दे हमें
वह ज़ख़्म दे जो सबको दिखाने के काम आए


रोने में इक ख़तरा है, तालाब नदी हो जाते हैं

रोने में इक ख़तरा है, तालाब नदी हो जाते हैं
हंसना भी आसान नहीं है, लब ज़ख़्मी हो जाते हैं

इस्टेसन से वापस आकर बूढ़ी आँखें सोचती हैं
पत्ते देहाती रहते हैं, फल शहरी हो जाते हैं

बोझ उठाना शौक कहाँ है, मजबूरी का सौदा है
रहते-रहते इस्टेशन पर लोग कुली हो जाते हैं

सबसे हंसकर मिलिये-जुलिये, लेकिन इतना ध्यान रहे
सबसे हंसकर मिलने वाले, रुसवा भी हो जाते हैं

अपनी अना को बेच के अक्सर लुक़्म-ए-तर की चाहत में
कैसे-कैसे सच्चे शाइर दरबारी हो जाते हैं

मुहाजिरनामा( Muhazir Nama )

मुहाजिर हैं मगर हम एक दुनिया छोड़ आए हैं,
तुम्हारे पास जितना है हम उतना छोड़ आए हैं ।

कहानी का ये हिस्सा आज तक सब से छुपाया है,
कि हम मिट्टी की ख़ातिर अपना सोना छोड़ आए हैं ।

नई दुनिया बसा लेने की इक कमज़ोर चाहत में,
पुराने घर की दहलीज़ों को सूना छोड़ आए हैं ।

अक़ीदत से कलाई पर जो इक बच्ची ने बाँधी थी,
वो राखी छोड़ आए हैं वो रिश्ता छोड़ आए हैं ।
*****
किसी की आरज़ू के पाँवों में ज़ंजीर डाली थी,
किसी की ऊन की तीली में फंदा छोड़ आए हैं ।
*****
पकाकर रोटियाँ रखती थी माँ जिसमें सलीक़े से,
निकलते वक़्त वो रोटी की डलिया छोड़ आए हैं ।
*****
जो इक पतली सड़क उन्नाव से मोहान जाती है,
वहीं हसरत के ख़्वाबों को भटकता छोड़ आए हैं ।
*****
यक़ीं आता नहीं, लगता है कच्ची नींद में शायद,
हम अपना घर गली अपना मोहल्ला छोड़ आए हैं ।
*****
हमारे लौट आने की दुआएँ करता रहता है,
हम अपनी छत पे जो चिड़ियों का जत्था छोड़ आए हैं ।
******
हमें हिजरत की इस अन्धी गुफ़ा में याद आता है,
अजन्ता छोड़ आए हैं एलोरा छोड़ आए हैं ।
*****
सभी त्योहार मिलजुल कर मनाते थे वहाँ जब थे,
दिवाली छोड़ आए हैं दशहरा छोड़ आए हैं ।
*****
हमें सूरज की किरनें इस लिए तक़लीफ़ देती हैं,
अवध की शाम काशी का सवेरा छोड़ आए हैं ।
*****
गले मिलती हुई नदियाँ गले मिलते हुए मज़हब,
इलाहाबाद में कैसा नज़ारा छोड़ आए हैं ।
*****
हम अपने साथ तस्वीरें तो ले आए हैं शादी की,
किसी शायर ने लिक्खा था जो सेहरा छोड़ आए हैं ।
*****

कई आँखें अभी तक ये शिकायत करती रहती हैं,
के हम बहते हुए काजल का दरिया छोड़ आए हैं ।
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शकर इस जिस्म से खिलवाड़ करना कैसे छोड़ेगी,
के हम जामुन के पेड़ों को अकेला छोड़ आए हैं ।
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वो बरगद जिसके पेड़ों से महक आती थी फूलों की,
उसी बरगद में एक हरियल का जोड़ा छोड़ आए हैं ।
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अभी तक बारिसों में भीगते ही याद आता है,
के छप्पर के नीचे अपना छाता छोड़ आए हैं ।
*****
भतीजी अब सलीके से दुपट्टा ओढ़ती होगी,
वही झूले में हम जिसको हुमड़ता छोड़ आए हैं ।
*****
ये हिजरत तो नहीं थी बुजदिली शायद हमारी थी,
के हम बिस्तर में एक हड्डी का ढाचा छोड़ आए हैं ।
*****
हमारी अहलिया तो आ गयी माँ छुट गए आखिर,
के हम पीतल उठा लाये हैं सोना छोड़ आए हैं ।
*****
महीनो तक तो अम्मी ख्वाब में भी बुदबुदाती थीं,
सुखाने के लिए छत पर पुदीना छोड़ आए हैं ।
*****
वजारत भी हमारे वास्ते कम मर्तबा होगी,
हम अपनी माँ के हाथों में निवाला छोड़ आए हैं ।
*****
यहाँ आते हुए हर कीमती सामान ले आए,
मगर इकबाल का लिखा तराना छोड़ आए हैं ।
*****
हिमालय से निकलती हर नदी आवाज़ देती थी,
मियां आओ वजू कर लो ये जूमला छोड़ आए हैं ।
*****
वजू करने को जब भी बैठते हैं याद आता है,
के हम जल्दी में जमुना का किनारा छोड़ आए हैं ।
*****
उतार आये मुरव्वत और रवादारी का हर चोला,
जो एक साधू ने पहनाई थी माला छोड़ आए हैं ।
*****
जनाबे मीर का दीवान तो हम साथ ले आये,
मगर हम मीर के माथे का कश्का छोड़ आए हैं ।
*****
उधर का कोई मिल जाए इधर तो हम यही पूछें,
हम आँखे छोड़ आये हैं के चश्मा छोड़ आए हैं ।
*****
हमारी रिश्तेदारी तो नहीं थी हाँ ताल्लुक था,
जो लक्ष्मी छोड़ आये हैं जो दुर्गा छोड़ आए हैं ।
*****
गले मिलती हुई नदियाँ गले मिलते हुए मज़हब,
इलाहाबाद में कैसा नाज़ारा छोड़ आए हैं ।
*****
कल एक अमरुद वाले से ये कहना गया हमको,
जहां से आये हैं हम इसकी बगिया छोड़ आए हैं ।
*****
वो हैरत से हमे तकता रहा कुछ देर फिर बोला,
वो संगम का इलाका छुट गया या छोड़ आए हैं।
*****
अभी हम सोच में गूम थे के उससे क्या कहा जाए,
हमारे आन्सुयों ने राज खोला छोड़ आए हैं ।
*****
मुहर्रम में हमारा लखनऊ इरान लगता था,
मदद मौला हुसैनाबाद रोता छोड़ आए हैं ।
*****
जो एक पतली सड़क उन्नाव से मोहान जाती है,
वहीँ हसरत के ख्वाबों को भटकता छोड़ आए हैं ।
*****
महल से दूर बरगद के तलए मवान के खातिर,
थके हारे हुए गौतम को बैठा छोड़ आए हैं ।
*****
तसल्ली को कोई कागज़ भी चिपका नहीं पाए,
चरागे दिल का शीशा यूँ ही चटखा छोड़ आए हैं ।
*****
सड़क भी शेरशाही आ गयी तकसीम के जद मैं,
तुझे करके हिन्दुस्तान छोटा छोड़ आए हैं ।
*****
हसीं आती है अपनी अदाकारी पर खुद हमको,
बने फिरते हैं युसूफ और जुलेखा छोड़ आए हैं ।
*****
गुजरते वक़्त बाज़ारों में अब भी याद आता है,
किसी को उसके कमरे में संवरता छोड़ आए हैं ।
*****
हमारा रास्ता तकते हुए पथरा गयी होंगी,
वो आँखे जिनको हम खिड़की पे रखा छोड़ आए हैं ।
*****
तू हमसे चाँद इतनी बेरुखी से बात करता है
हम अपनी झील में एक चाँद उतरा छोड़ आए हैं ।
*****
ये दो कमरों का घर और ये सुलगती जिंदगी अपनी,
वहां इतना बड़ा नौकर का कमरा छोड़ आए हैं ।
*****
हमे मरने से पहले सबको ये ताकीत करना है ,
किसी को मत बता देना की क्या-क्या छोड़ आए हैं ।
*****
 दुआ के फूल जहाँ पंडित जी तकसीम करते थे
वो मंदिर छोड़ आये हैं वो शिवाला छोड़ आये हैं
*****
हमीं ग़ालिब से नादीम है हमीं तुलसी से शर्मिंदा
हमींने मीरको छोडा है मीरा छोड आए हैं
*****
अगर लिखने पे आ जायें तो सियाही ख़त्म हो जाये
कि तेरे पास आयें है तो क्या-क्या छोड आये हैं
*****
ग़ज़ल ये ना-मुक़म्मल ही रहेगी उम्र भर “राना”
कि हम सरहद से पीछे इसका मक़्ता छोड आयें है

जब भी देखा मेरे किरदार पे धब्बा कोई

जब भी देखा मेरे किरदार पे धब्बा कोई
देर तक बैठ के तन्हाई में रोया कोई

लोग माज़ी* का भी अन्दाज़ा लगा लेते हैं
मुझको तो याद नहीं कल का भी क़िस्सा कोई

बेसबब* आँख में आँसू नहीं आया करते
आपसे होगा यक़ीनन  मेरा रिश्ता कोई

याद आने लगा एक दोस्त का बर्ताव मुझे
टूट कर गिर पड़ा जब शाख़ से पत्ता कोई

बाद में साथ निभाने की क़सम खा लेना
देख लो जलता हुआ पहले पतंगा कोई

उसको कुछ देर सुना लेता हूँ रूदादे-सफ़र*
राह में जब कभी मिल जाता है अपना कोई

कैसे समझेगा बिछड़ना वो किसी का "राना"
टूटते देखा नहीं जिसने सितारा कोई

माज़ी - अतीत
बेसबब - अकारण
रूदादे-सफ़र - यात्रा का विवरण

यह एहतराम तो करना ज़रूर पड़ता है

यह एहतराम तो करना ज़रूर पड़ता है
जो तू ख़रीदे तो बिकना ज़रूर पड़ता है

बड़े सलीक़े से यह कह के ज़िन्दगी गुज़री
हर एक शख़्स को मरना ज़रूर पड़ता है

वो दोस्ती हो मुहब्बत हो चाहे सोना हो
कसौटियों पे परखना ज़रूर पड़ता है

कभी जवानी से पहले कभी बुढ़ापे में
ख़ुदा के सामने झुकना ज़रूर पड़ता है

हो चाहे जितनी पुरानी भी दुश्मनी लेकिन
कोई पुकारे तो रुकना ज़रूर पड़ता है

शराब पी के बहकने से कौन रोकेगा
शराब पी के बहकना ज़रूर पड़ता है

वफ़ा की राह पे चलिए मगर ये ध्यान रहे
कि दरमियान में सहरा ज़रूर पड़ता है

मैं लोगों से मुलाकातों के लम्हे याद रखता हूँ

मैं लोगों से मुलाकातों के लम्हे याद रखता हूँ
मैं बातें भूल भी जाऊं तो लहजे याद रखता हूँ

सर-ए-महफ़िल निगाहें मुझ पे जिन लोगों की पड़ती हैं
निगाहों के हवाले से वो चेहरे याद रखता हूँ

ज़रा सा हट के चलता हूँ ज़माने की रवायत से
कि जिन पे बोझ मैं डालू वो कंधे याद रखता हूँ

दोस्ती जिस से कि उसे निभाऊंगा जी जान से
मैं दोस्ती के हवाले से रिश्ते याद रखता हूँ

हर एक आवाज़ उर्दू को फरियादी बताती है

हर एक आवाज़ उर्दू को फरियादी बताती है
ये पगली फिर भी अब तक खुद को शहजादी बताती है

कई बातें मोहब्बत सबको बुनियादी बताती हैं
जो परदादी बताती थी वही दादी बताती हैं

जहाँ पिछले कई बरसों से काले नाग रहते हैं
वहाँ एक घोसला चिडियों का था दादी बताती है

अभी तक ये इलाका है रवादारी के कब्ज़े में
अभी फिरकापरस्ती* कम है आबादी बताती है

यहाँ वीरानियों की एक मुद्दत से हुकूमत है
यहाँ से नफरते गुजरी हैं बर्बादी बताती है

लहू कैसे बहाया जाए ये लीडर बताते हैं
लहू का जायका कैसा है ये खादी बताती है

गुलामी  ने अभी तक मुल्क का पीछा नहीं छोड़ा
 हमे फिर कैद होना है ये आज़ादी बताती है

गरीबी  क्यूँ हमारे शहर से बाहर नहीं जाती
 अमीर-ए-शहर के घर की हर एक शादी बताती है

मैं उन आँखों के मयखाने में थोड़ी देर बैठा था
मुझे दुनिया नशे का आज तक आदी बताती है

फिरकापरस्ती - साम्प्रदायिकता

यह ग़ज़ल मुनव्वर राना (Munawwar Rana) ने गुजरात दंगों पर अपना दर्द व्यकत करने के लिए लिखी थी पर मुनव्वर राना (Munawwar Rana) द्वारा लिखी गयी यह ग़ज़ल देश में होने वाले हर साम्प्रदायिक दंगों और उस पर होने वाली घिनौनी राजनीति पर
फीट बैठती है। मुनव्वर राना(Munawwar Rana) कि एक बेहद उम्दा रचना।
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हुकूमत के इशारे पे तो मुर्दा बोल सकता है
मैं दहशतगर्द था मरने पे बेटा बोल सकता है
हुकूमत के इशारे पे तो मुर्दा बोल सकता है

यहाँ पर नफ़रतों ने कैसे कैसे गुल खिलाये हैं
लुटी अस्मत बता देगी दुपट्टा बोल सकता है

हुकूमत की तवज्जो चाहती है ये जली बस्ती
अदालत पूछना चाहे तो मलबा बोल सकता है

कई चेहरे अभी तक मुँहज़बानी याद हैं इसको
कहीं तुम पूछ मत लेना ये गूंगा बोल सकता है

बहुत सी कुर्सियाँ इस मुल्क में लाशों पे रखी हैं
ये वो सच है जिसे झूठे से झूठा बोल सकता है

सियासत की कसौटी पर परखिये मत वफ़ादारी
किसी दिन इंतक़ामन मेरा गुस्सा बोल सकता है

ये देख कर पतंगे भी हैरान हो गयी

ये देख कर पतंगे भी हैरान हो गयी
अब तो छते भी हिन्दू -मुसलमान हो गयी

क्या शहर -ए-दिल में जश्न -सा रहता था रात -दिन
 क्या बस्तियां थी ,कैसी बियाबान हो गयी

आ जा कि चंद साँसे बची है हिसाब से
आँखे तो इन्तजार में लोबान हो गयी

उसने बिछड़ते वक़्त कहा था कि हँस के देख
आँखे तमाम उम्र को वीरान हो गयी

हम दोनों में आँखें कोई गीली नहीं करता

हम दोनों में आँखें कोई गीली नहीं करता
ग़म वो नहीं करता है तो मैं भी नहीं करता

मौक़ा तो कई बार मिला है मुझे लेकिन
मैं उससे मुलाक़ात में जल्दी नहीं करता

वो मुझसे बिछड़ते हुए रोया नहीं वरना
दो चार बरस और मैं शादी नहीं करता

वो मुझसे बिछड़ने को भी तैयार नहीं है
लेकिन वो बुज़ुर्गों को ख़फ़ा भी नहीं करता

ख़ुश रहता है वो अपनी ग़रीबी में हमेशा
‘राना’ कभी शाहों की ग़ुलामी नहीं करता

लिपट जाता हूँ माँ से और मौसी मुस्कुराती है

लिपट जाता हूँ माँ से और मौसी मुस्कुराती है
मैं उर्दू में ग़ज़ल कहता हूँ हिन्दी मुस्कुराती है

उछलते खेलते बचपन में बेटा ढूँढती होगी
तभी तो देख कर पोते को दादी मुस्कुराती है

तभी जा कर कहीं माँ-बाप को कुछ चैन पड़ता है
कि जब ससुराल से घर आ के बेटी मुस्कुराती है

चमन में सुबह का मंज़र बड़ा दिलचस्प होता है
कली जब सो के उठती है तो तितली मुस्कुराती है

हमें ऐ ज़िन्दगी तुझ पर हमेशा रश्क आता है
मसायल से घिरी रहती है फिर भी मुस्कुराती है

बड़ा गहरा तअल्लुक़ है सियासत से तबाही का
कोई भी शहर जलता है तो दिल्ली मुस्कुराती है

उन घरों में जहाँ मिट्टी के घड़े रहते हैं

उन घरों में जहाँ मिट्टी के घड़े रहते हैं
क़द में छोटे हों मगर लोग बड़े रहते हैं

जाओ जा कर किसी दरवेश की अज़मत देखो
ताज पहने हुए पैरों में पड़े रहते हैं

जो भी दौलत थी वो बच्चों के हवाले कर दी
जब तलक मैं नहीं बैठूँ ये खड़े रहते हैं

मैंने फल देख के इन्सानों को पहचाना है
जो बहुत मीठे हों अंदर से सड़े रहते हैं

गौतम की तरह घर से निकल कर नहीं जाते
गौतम की तरह घर से निकल कर नहीं जाते
हम रात में छुपकर कहीं बाहर नहीं जाते

बचपन में किसी बात पर हम रूठ गए थे
उस दिन से इसी शहर में है घर नहीं जाते

एक उम्र यूँ ही काट दी फ़ुटपाथ पे रहकर
हम ऐसे परिन्दे हैं जो उड़कर नहीं जाते

उस वक़्त भी अक्सर तुझे हम ढूँढने निकले
जिस धूप में मज़दूर भी छत पर नहीं जाते

हम वार अकेले ही सहा करते हैं ‘राना’
हम साथ में लेकर कहीं लश्कर नहीं जाते

वो दोस्ती हो मुहब्बत हो चाहे सोना हो

यह एहतराम तो करना ज़रूर पड़ता है
जो तू ख़रीदे तो बिकना ज़रूर पड़ता है

बड़े सलीक़े से यह कह के ज़िन्दगी गुज़री
हर एक शख़्स को मरना ज़रूर पड़ता है

वो दोस्ती हो मुहब्बत हो चाहे सोना हो
कसौटियों पे परखना ज़रूर पड़ता है

कभी जवानी से पहले कभी बुढ़ापे में
ख़ुदा के सामने झुकना ज़रूर पड़ता है

हो चाहे जितनी पुरानी भी दुश्मनी लेकिन
कोई पुकारे तो रुकना ज़रूर पड़ता है

शराब पी के बहकने से कौन रोकेगा ?
शराब पी के बहकना ज़रूर पड़ता है

वफ़ा की राह पे चलिए मगर ये ध्यान रहे
की दरमियान में सहरा ज़रूर पड़ता है

तुम्हारे जिस्म की ख़ुश्बू गुलों से आती है

तुम्हारे जिस्म की ख़ुश्बू गुलों से आती है
ख़बर तुम्हारी भी अब दूसरों से आती है

हमीं अकेले नहीं जागते हैं रातों में
उसे भी नींद बड़ी मुश्किलों से आती है

हमारी आँखों को मैला तो कर दिया है मगर
मोहब्बतों में चमक आँसुओं से आती है

इसी लिए तो अँधेरे हसीन लगते हैं
कि रात मिल के तेरे गेसुओं से आती है

ये किस मक़ाम पे पहुँचा दिया मोहब्बत ने
कि तेरी याद भी अब कोशिशों से आती है

टुकड़ों में बिखरा हुआ किसी का जिगर दिखाएँगे

टुकड़ों में बिखरा हुआ किसी का जिगर दिखाएँगे
कभी आना हमारी बस्ती तुम्हे अपना घर दिखाएँगे !

होंठ काँप जाते हैं थर-थर्राती है ज़ुबान
टूटे दिल से निकली हुई आहों का असर दिखाएँगे !

एक पहुँच पाता नहीं और एक छलक जाता है
पलकों से दामन तक का अश्कों का सफ़र दिखाएँगे !

कभी आना हमारी बस्ती तुम्हे अपना घर दिखाएँगे !!

कहीं तस्वीर है तेरी कहीं लिखा है तेरा नाम
मंदिर-मस्जिद जितना पाक एक दीवार-ओ-दर दिखाएँगे !

अक्सर तकती रहती है सुनसान राहों को सनम
दरवाज़े पर बैठी हुई सपनो की नज़र दिखाएँगे।

कभी आना हमारी बस्ती तुम्हे अपना घर दिखाएँगे !!

तुम्हारे शहर में मय्यत को सब काँधा नहीं देते
अजब दुनिया है नाशायर यहाँ पर सर उठाते हैं
जो शायर हैं वो महफ़िल में दरी- चादर उठाते हैं

तुम्हारे शहर में मय्यत को सब काँधा नहीं देते
हमारे गाँव में छप्पर भी सब मिल कर उठाते हैं

इन्हें फ़िरक़ापरस्ती मत सिखा देना कि ये बच्चे
ज़मीं से चूमकर तितली के टूटे पर उठाते हैं

समुन्दर के सफ़र से वापसी का क्या भरोसा है
तो ऐ साहिल, ख़ुदा हाफ़िज़ कि हम लंगर उठाते हैं

ग़ज़ल हम तेरे आशिक़ हैं मगर इस पेट की ख़ातिर
क़लम किस पर उठाना था क़लम किसपर उठाते हैं

बुरे चेहरों की जानिब देखने की हद भी होती है
सँभलना आईनाख़ानो, कि हम पत्थर उठाते हैं

कभी ख़ुशी से ख़ुशी की तरफ़ नहीं देखा

कभी ख़ुशी से ख़ुशी की तरफ़ नहीं देखा
तुम्हारे बाद किसी की तरफ़ नहीं देखा

ये सोच कर कि तेरा इंतज़ार लाज़िम*है
तमाम उम्र घड़ी की तरफ़ नहीं देखा

यहाँ तो जो भी है आबे-रवाँ* का आशिक़ है
किसी ने ख़ुश्क नदी की तरफ़ नहीं देखा

वो जिस के वास्ते परदेस जा रहा हूँ मैं
बिछड़ते वक़्त उसी की तरफ़ नहीं देखा

न रोक ले हमें रोता हुआ कोई चेहरा
चले तो मुड़ के गली की तरफ़ नहीं देखा

बिछड़ते वक़्त बहुत मुतमुइन* थे हम दोनों
किसी ने मुड़ के किसी की तरफ़ नहीं देखा

रविश* बुज़ुर्गों की शामिल है मेरी घुट्टी में
ज़रूरतन भी सख़ी* की तरफ़ नहीं देखा

लाज़िम - आवश्यक
आबे-रवाँ - बहते हुए पानी का
मुतमुइन - संतुष्ट
रविश - आचरण
सख़ी - दानदाता

मिट्टी में मिला दे की जुदा हो नहीं सकता

मिट्टी में मिला दे की जुदा हो नहीं सकता
अब इससे जयादा मैं तेरा हो नहीं सकता

दहलीज़ पे रख दी हैं किसी शख़्स ने आँखें
रौशन कभी इतना तो दिया हो नहीं सकता

बस तू मेरी आवाज़ में आवाज़ मिला दे
फिर देख की इस शहर में क्या हो नहीं सकता

ऎ मौत मुझे तूने मुसीबत से निकाला
सय्याद समझता था रिहा हो नहीं सकता

इस ख़ाकबदन को कभी पहुँचा दे वहाँ भी
क्या इतना करम बादे-सबा* हो नहीं सकता

पेशानी* को सजदे भी अता कर मेरे मौला
आँखों से तो यह क़र्ज़ अदा हो नहीं सकता

*बादे-सबा - बहती हवा
*पेशानी -माथे

गले मिलने को आपस में दुआयें रोज़ आती हैं

गले मिलने को आपस में दुआयें रोज़ आती हैं
अभी मस्जिद के दरवाज़े पे मायें रोज़ आती हैं

अभी रोशन हैं चाहत के दिये हम सबकी आँखों में
बुझाने के लिये पागल हवायें रोज़ आती हैं

कोई मरता नहीं है , हाँ मगर सब टूट जाते हैं
हमारे शहर में ऎसी वबायें* रोज़ आती हैं

अभी दुनिया की चाहत ने मेरा पीछा नहीं छोड़ा
अभी मुझको बुलाने दाश्तायें*रोज़ आती हैं

ये सच है नफ़रतों की आग ने सब कुछ जला डला
मगर उम्मीद की ठंडी हवायें रोज़ आती हैं

*  वबायें - बीमारियाँ
*  दाश्तायें - रखैलें

भरोसा मत करो साँसों की डोरी टूट जाती है

भरोसा मत करो साँसों की डोरी टूट जाती है
छतें महफ़ूज़ रहती हैं हवेली टूट जाती है

मुहब्बत भी अजब शय है वो जब परदेस में रोये
तो फ़ौरन हाथ की एक-आध चूड़ी टूट जाती है

कहीं कोई कलाई एक चूड़ी को तरसती है
कहीं कंगन के झटके से कलाई टूट जाती है

लड़कपन में किये वादे की क़ीमत कुछ नहीं होती
अँगूठी हाथ में रहती है मँगनी टूट जाती है

किसी दिन प्यास के बारे में उससे पूछिये जिसकी
कुएँ में बाल्टी रहती है रस्सी टूट जाती है

कभी एक गर्म आँसू काट देता है चटानों को
कभी एक मोम के टुकड़े से छैनी टूट जाती है

हम कभी जब दर्द के किस्से सुनाने लग गये

हम कभी जब दर्द के किस्से सुनाने लग गये
लफ़्ज़ फूलों की तरह ख़ुश्बू लुटाने लग गये

लौटने में कम पड़ेगी उम्र की पूँजी हमें
आपतक आने ही में हमको ज़माने लग गये

आपने आबाद वीराने किए होंगे बहुत
आपकी ख़ातिर मगर हम तो ठिकाने लग गये

दिल समन्दर के किनारे का वो हिस्सा है जहाँ
शाम होते ही बहुत-से शामियाने लग गये

बेबसी तेरी इनायत है कि हम भी आजकल
अपने आँसू अपने दामन पर बहाने लग गये

उँगलियाँ थामे हुए बच्चे चले इस्कूल को
सुबह होते ही परिन्दे चहचहाने लग गये

कर्फ़्यू में और क्या करते मदद एक लाश की
बस अगरबती की सूरत हम सिरहाने लग गये

तू कभी देख तो रोते हुए आकर मुझको

तू कभी देख तो रोते हुए आकर मुझको
रोकना पड़ता है आँखों से समुन्दर मुझको

इसमे आवारा मिज़ाजी का कोई दख़्ल नहीं
दश्त-ओ-सहरा में फिराता है मुक़द्दर मुझको

एक टूटी हुई कश्ती का मुसाफ़िर हूँ मैं
हाँ निगल जाएगा एक रोज़ समुन्दर मुझको

इससे बढ़कर मेरी तौहीन -ए-अना क्या होगी
अब गदागर भी समझते हैं गदागर मुझको

ज़ख़्म चेहरे पे, लहू आँखों में, सीना छलनी,
ज़िन्दगी अब तो ओढ़ा दे कोई चादर मुझको

मेरी आँखों को वो बीनाई अता कर मौला
एक आँसू भी नज़र आए समुन्दर मुझको

कोई इस बात को माने कि न माने लेकिन
चाँद लगता है तेरे माथे का झूमर मुझको

दुख तो ये है मेरा दुश्मन ही नहीं है कोई
ये मेरे भाई हैं कहते हैं जो बाबर मुझको

मुझसे आँगन का अँधेरा भी नहीं मिट पाया
और दुनिया है कि कहती है ‘मुनव्वर’ मुझको

हवा के रूख पर रहने दो, ये चलना सीख जायेगा

हवा के रूख पर रहने दो, ये चलना सीख जायेगा
कि बच्चा लडखडायेगा तो चलना सीख जायेगा

वो पहरों बैठ के तोते से बातें करता रहता है
चलो अच्छा है अब नज़रें बदलना सीख जायेगा

इसी उम्मीद पर हमने बदन को कर लिया छलनी
कि पत्थर खाते खाते पेड फलना सीख जायेगा

ये दिल बच्चे की सूरत है, इसे सीने में रहने दो
बुरा होगा जो ये घर से निकलना सीख जायेगा

तुम अपना दिल मेरे सीने में कुछ दिनों के लिए रख दो
यहां रहकर ये पत्थर भी पिघलना सीख जायेगा

हमारी दोस्ती से दुश्मनी शरमाई रहती है

हमारी दोस्ती से दुश्मनी शरमाई रहती है
हम अकबर हैं हमारे दिल में जोधाबाई रहती है

किसी का पूछना कब तक हमारी राह देखोगे
हमारा फ़ैसला जब तक कि ये बीनाई* रहती है

मेरी सोहबत में भेजो ताकि इसका डर निकल जाए
बहुत सहमी हुए दरबार में सच्चाई रहती है

गिले-शिकवे ज़रूरी हैं अगर सच्ची मुहब्बत है
जहाँ पानी बहुत गहरा हो थोड़ी काई रहती है

बस इक दिन फूट कर रोया था मैं तेरी मुहब्बत में
मगर आवाज़ मेरी आजतक भर्राई रहती है

ख़ुदा महफ़ूज़ रक्खे मुल्क को गन्दी सियासत से
शराबी देवरों के बीच में भौजाई रहती है

* बीनाई - आँखों की रौशनी

ये दरवेशों कि बस्ती है यहाँ ऐसा नहीं होगा

ये दरवेशों कि बस्ती है यहाँ ऐसा नहीं होगा
लिबास ऐ ज़िन्दगी फट जाएगा मैला नहीं होगा

शेयर बाज़ार में कीमत उछलती गिरती रहती है
मगर ये खून ऐ मुफलिस है महंगा नहीं होगा

तेरे एहसान कि ईंटे लगी है इस इमारत में
हमारा घर तेरे घर से कभी उंचा नहीं होगा

हमारी दोस्ती के बीच खुदगर्ज़ी भी शामिल है
ये बेमौसम का फल है ये बहुत मीठा नहीं होगा

पुराने शहर के लोगों में एक रस्म ऐ मुर्रव्वत है
हमारे पास आ जाओ कभी धोखा नहीं होगा

आपका ग़म मुझे तन्हा नहीं रहने देता

मेरे कमरे में अँधेरा नहीं रहने देता
आपका ग़म मुझे तन्हा नहीं रहने देता

वो तो ये कहिये कि शमशीरज़नी* आती थी
वर्ना दुश्मन हमें ज़िन्दा नहीं रहने देता

मुफ़लिसी घर में ठहरने नहीं देती हमको
और परदेस में बेटा नहीं रहने देता

तिश्नगी* मेरा मुक़द्दर है इसी से शायद
मैं परिन्दों को भी प्यासा नहीं रहने देता

रेत पर खेलते बच्चों को अभी क्या मालूम
कोई सैलाब घरौंदा नहीं रहने देता

ग़म से लछमन के तरह भाई का रिश्ता है मेरा
मुझको जंगल में अकेला नहीं रहने देता

*शमशीरज़नी - तलवारबाज़ी
*तिश्नगी  -   प्यास

तुझ में सैलाबे-बला थोड़ी जवानी कम है

तुझ में सैलाबे-बला थोड़ी जवानी कम है
ऐसा लगता है मेरी आँखों में पानी कम है

कुछ तो हम रोने के आदाब* से नावाक़िफ़ हैं
और कुछ चोट भी शायद ये पुरानी कम है

इस सफ़र के लिए कुछ जादे-सफ़र* और मिले
जब बिछड़ना है तो फिर एक निशानी कम है

शहर का शहर बहा जाता है तिनके की तरह
तुम तो कहते थे कि अश्कों में रवानी कम है

कैसा सैलाब था आँखें भी नहीं बह पाईं
ग़म के आगे ये मेरी मर्सिया-ख़्वानी*  कम है

मुन्तज़िर* होंगी यहाँ पर भी किसी की आँखें
ये गुज़ारिश है मेरी याद-दहानी* कम है

*आदाब - तौर तरीके
*जादे-सफ़र - सफ़र के लिए रसद
*मर्सिया-ख़्वानी - शोक गाथा
*मुन्तज़िर -  प्रतीक्षारत
*याद-दहानी - स्मरण-शक्ति

मुझको गहराई में मिट्टी की उतर जाना है

मुझको गहराई में मिट्टी की उतर जाना है
ज़िंदगी बाँध ले सामाने-सफ़र जाना है

घर की दहलीज़ पे रौशन हैं वो बुझती आँखें
मुझको मत रोक मुझे लौट के घर जाना है

मैं वो मेले में भटकता हुआ इक बच्चा हूँ
जिसके माँ-बाप को रोते हुए मर जाना है

ज़िंदगी ताश के पत्तों की तरह है मेरी
और पत्तों को बहरहाल बिखर जाना है

एक बेनाम से रिश्ते की तमन्ना लेकर
इस कबूतर को किसी छत पे उतर जाना है

जिसे दुश्मन समझता हूँ वही अपना निकलता है

जिसे दुश्मन समझता हूँ वही अपना निकलता है
हर एक पत्थर से मेरे सर का कुछ रिश्ता निकलता है

डरा -धमका के तुम हमसे वफ़ा करने को कहते हो
कहीं तलवार से भी पाँव का काँटा निकलता है?

ज़रा-सा झुटपुटा होते ही छुप जाता है सूरज भी
मगर इक चाँद है जो शब में भी तन्हा निकलता है

किसी के पास आते हैं तो दरिया सूख जाते हैं
किसी की एड़ियों से रेत में चश्मा निकलता है

फ़ज़ा में घोल दीं हैं नफ़रतें अहले-सियासत ने
मगर पानी कुएँ से आज तक मीठा निकलता है

जिसे भी जुर्मे-ग़द्दारी में तुम सब क़त्ल करते हो
उसी की जेब से क्यों मुल्क का झंडा निकलता है

दुआएँ माँ की पहुँचाने को मीलों-मील आती हैं
कि जब परदेस जाने के लिए बेटा निकलता है

एक आँगन में दो आँगन हो जाते हैं

एक आँगन में दो आँगन हो जाते हैं
मत पूछा कर किस कारन हो जाते हैं

हुस्न की दौलत मत बाँटा कर लोगों में
ऐसे वैसे लोग महाजन हो जाते हैं

ख़ुशहाली में सब होते हैं ऊँची ज़ात
भूखे-नंगे लोग हरिजन हो जाते हैं

राम की बस्ती में जब दंगा होता है
हिंदू- मुस्लिम सब रावन हो जाते हैं

ज़िन्दगी तूने बहुत ज़ख़्म दिये है मुझको

झूठ बोला था तो यूँ मेरा दहन दुखता है
सुबह दम जैसे तवायफ़ का बदन दुखता है

ख़ाली मटकी की शिकायत पे हमें भी दुख है
ऐ ग्वाले मगर अब गाय का थन दुखता है

उम्र भर साँप से शर्मिन्दा रहे ये सुन कर
जबसे इन्सान को काटा है तो फन दुखता है

ज़िन्दगी तूने बहुत ज़ख़्म दिये है मुझको
अब तुझे याद भी करता हूँ तो मन दुखता है

मौला ये तमन्ना है कि जब जान से जाऊँ

मौला ये तमन्ना है कि जब जान से जाऊँ
जिस शान से आया हूँ उसी शान से जाऊँ

बच्चों की तरह पेड़ों की शाख़ों से मैं कूदूँ
चिड़ियों की तरह उड़के मैं खलिहान से जाऊँ

हर लफ़्ज़ महकने लगे लिक्खा हुआ मेरा
मैं लिपटा हुआ यादों के लोबान से जाऊँ

मुझमें कोई वीराना भी आबाद है शायद
साँसों ने भी पूछा था बियाबान से जाऊँ

ज़िंदा मुझे देखेगी तो माँ चीख उठेगी
क्या ज़ख़्म लिए पीठ पे मैदान से जाऊँ

क्या सूखे हुए फूल की क़िस्मत का भरोसा
मालूम नहीं कब तेरे गुलदान से जाऊँ

मुद्दतों माँ ने नहीं धोया दुपट्टा अपना

मुझको हर हाल में बख़्शेगा उजाला अपना
चाँद रिश्ते में तो लगता नहीं मामा अपना

मैंने रोते हुए पोंछे थे किसी दिन आँसू
मुद्दतों माँ ने नहीं धोया दुपट्टा अपना

हम परिन्दों की तरह उड़ के तो जाने से रहे
इस जनम में तो न बदलेंगे ठिकाना अपना

धूप से मिल गए हैं पेड़ हमारे घर के
हम समझते थे की काम आएगा बेटा अपना

सच बता दूँ तो ये बाज़ार-ए-मुहब्बत गिर जाए
मैंने जिस दाम में बेचा है ये मलबा अपना

आइनाख़ाने में रहने का ये ईनाम मिला
एक मुद्दत से नहीं देखा है चेहरा अपना

तेज़ आँधी में बदल जाते हैं सारे मंज़र
भूल जाते हैं परिन्दे भी ठिकाना अपना

गले मिलने को आपस में दुआयें रोज़ आती हैं

गले मिलने को आपस में दुआयें रोज़ आती हैं
अभी मस्जिद के दरवाज़े पे मायें रोज़ आती हैं

अभी रोशन हैं चाहत के दिये हम सबकी आँखों में
बुझाने के लिये पागल हवायें रोज़ आती हैं

कोई मरता नहीं है , हाँ मगर सब टूट जाते हैं
हमारे शहर में ऎसी वबायें* रोज़ आती हैं

अभी दुनिया की चाहत ने मेरा पीछा नहीं छोड़ा
अभी मुझको बुलाने दाश्तायें* रोज़ आती हैं

ये सच है नफ़रतों की आग ने सब कुछ जला डला
मगर उम्मीद की ठंडी हवायें रोज़ आती हैं

* वबायें -  बीमारियाँ
* दाश्तायें -  रखैलें

कई घरों को निगलने के बाद आती है

कई घरों को निगलने के बाद आती है
मदद भी शहर के जलने के बाद आती है

न जाने कैसी महक आ रही है बस्ती में
वही जो दूध उबलने के बाद आती है

नदी पहाड़ों से मैदान में तो आती है
मगर ये बर्फ़ पिघलने के बाद आती है

ये झुग्गियाँ तो ग़रीबों की ख़ानक़ाह*  हैं
क़लन्दरी*  यहाँ पलने के बाद आती है

गुलाब ऎसे ही थोड़े गुलाब होता है
ये बात काँटों पे चलने के बाद आती है

शिकायतें तो हमें मौसम-ए-बहार से है
खिज़ाँ* तो फूलने-फलने के बाद आती है

* ख़ानक़ाह - आश्रम
* क़लन्दरी - फक्कड़पन
* खिज़ाँ - पतझड़

समझौतों की भीड़-भाड़ में सबसे रिश्ता टूट गया

समझौतों की भीड़-भाड़ में सबसे रिश्ता टूट गया
इतने घुटने टेके हमने, आख़िर घुटना टूट गया

देख शिकारी तेरे कारण  एक परिन्दा टूट गया,
पत्थर का तो कुछ नहीं बिगड़ा, लेकिन शीशा टूट गया

घर का बोझ उठाने वाले बचपन की तक़दीर न पूछ
बच्चा घर से काम पे निकला और खिलौना टूट गया

किसको फ़ुर्सत इस दुनिया में ग़म की कहानी पढ़ने की
सूनी कलाई देखके लेकिन, चूड़ी वाला टूट गया

ये मंज़र भी देखे हमने इस दुनिया के मेले में
टूटा-फूटा नाच रहा है, अच्छा ख़ासा टूट गया

पेट की ख़ातिर फ़ुटपाथों पर बेच रहा हूँ तस्वीरें
मैं क्या जानूँ रोज़ा है या मेरा रोज़ा टूट गया

हमारी जिंदगी का इस तरह हर साल कटता है

हमारी जिंदगी का इस तरह हर साल कटता है
कभी गाड़ी पलटती है कभी तिरपाल कटता है

दिखाते हैं पड़ोसी मुल्क आँखें तो दिखाने दो
कहीं बच्चों के बोसे से भी माँ का गाल कटता है

इसी उलझन में अक्सर रात आँखों में गुज़रती है
बरेली को बचाते हैं तो नैनीताल कटता है

कभी रातों के सन्नाटे में भी निकला करो घर से
कभी देखा करो गाड़ी से कैसे माल कटता है

सियासी वार भी तलवार से कुछ कम नहीं होता
कभी कश्मीर जाता है कभी बंगाल कटता है

जब कभी धूप की शिद्दत ने सताया मुझको

जब कभी धूप की शिद्दत ने सताया मुझको
याद आया बहुत एक पेड़ का साया मुझको

अब भी रौशन है तेरी याद से घर के कमरे
रोशनी देता है अब तक तेरा साया मुझको

मेरी ख़्वाहिश थी की मैं रौशनी बाँटू सबको
जिंदगी तूने बहुत जल्द बुझाया मुझको

चाहने वालों ने कोशिश तो बहुत की लेकिन
खो गया मैं तो कोई ढूँढ न पाया मुझको

सख़्त हैरत में पड़ी मौत ये जुमला सुनकर
आ, अदा करना है साँसों का किराया मुझको

शुक्रिया तेरा अदा करता हूँ जाते-जाते
जिंदगी तूने बहुत रोज़ बचाया मुझको

बंद कर खेल-तमाशा हमें नींद आती है

बंद कर खेल-तमाशा हमें नींद आती है
अब तो सो जाने दे दुनिया हमें नींद आती है

डूबते चाँद-सितारों ने कहा है हमसे
तुम ज़रा जागते रहना हमें नींद आती है

दिल की ख़्वाहिश की तेरा रास्ता देखा जाए
और आँखों का ये कहना नींद आती है

अपनी यादों से हमें अब तो रिहाई दे दे
अब तो जंज़ीर न पहना हमें नींद आती है

छाँव पाता है मुसाफ़िर तो ठहर जाता है
ज़ुल्फ़ को ऐसे न बिखरा हमें नींद आती है

उनसे मिलिए जो यहाँ फेर-बदल वाले हैं

उनसे मिलिए जो यहाँ फेर-बदल वाले हैं
हमसे मत बोलिए हम लोग ग़ज़ल वाले हैं

कैसे शफ़्फ़ाफ़ लिबासों में नज़र आते हैं
कौन मानेगा की ये सब वही कल वाले हैं

लूटने वाले उसे क़त्ल न करते लेकिन
उसने पहचान लिया था की बग़ल वाले हैं

अब तो मिल-जुल के परिंदों को रहना होगा
जितने तालाब हैं सब नील-कमल वाले हैं

यूँ भी इक फूस के छप्पर की हक़ीक़त क्या थी
अब उन्हें ख़तरा है जो लोग महल वाले हैं

बेकफ़न लाशों के अम्बार लगे हैं लेकिन
फ़ख्र से कहते हैं हम ताजमहल वाले हैं

अभी तक कुछ नहीं बिगड़ा अभी बीमार जिंदा है

अभी तक कुछ नहीं बिगड़ा अभी बीमार जिंदा है
अभी इस शहर में उर्दू का इक अख़बार जिंदा है

नदी की तरह होती हैं ये सरहद की लकीरें भी
कोई इस पार जिंदा है कोई उस पार जिंदा है

ख़ुदा के वास्ते ऐ बेज़मीरी गाँव मत आना
यहाँ भी लोग मरते हैँ मगर किरदार जिंदा है
ये संसद है यहाँ भगवान का भी बस नहीं चलता

ये संसद है यहाँ भगवान का भी बस नहीं चलता
जहाँ पीतल ही पीतल हो बहाँ पारस नहीं चलता

यहाँ पर हारने वाले की जानिब कौन देखेगा
सिकन्दर का इलाक़ा है यहाँ पोरस नहीं चलता

दरिन्दे ही दरिन्दे हों तो किसको कौन देखेगा
जहाँ जंगल ही जंगल हो वहाँ सरकस नहीं चलता

हमारे शहर से गंगा नदी हो कर गुज़रती है
हमारे शहर में महुए से निकला रस नहीं चलता

कहाँ तक साथ देंगी ये उखड़ती टूटती साँसें
बिछड़ कर अपने साथी से कभी सारस नहीं चलता

ये मिट्टी अब मेरे साथी को क्यों जाने नहीं देती
ये मेरे साथ आया था क्यों वापस नहीं चलता

अलमारी से ख़त उसके पुराने निकल आए

अलमारी से ख़त उसके पुराने निकल आए
फिर से मेरे चेहरे पे ये दाने निकल आए

माँ बैठ के तकती थी जहाँ से मेरा रस्ता
मिट्टी के हटाते ही ख़ज़ाने निकल आए

मुमकिनहै हमें गाँव भी पहचान न पाए
बचपन में ही हम घर से कमाने निकल आए

बोसीदा* किताबों के वरक़* जैसे हैं हम लोग
जब हुक्म दिया हमको कमाने निकल आए

ऐ रेत के ज़र्रे* तेरा एहसान बहुत है
आँखों को भिगोने के बहाने निकल आए

अब तेरे बुलाने से भी आ नहीं सकतेl
हम तुझसे बहुत आगे ज़माने निकल आए

एक ख़ौफ़-सा रहता है मेरे दिल में हमेशा
किस घर से तेरी याद न जाने निकल आए

* बोसीदा - पुरानी
* वरक़ - पन्ने
* ज़र्रे - कण

माँ, हम अपने साथ बस तेरी दुआ ले जायेंगे

साथ अपने रौनक़ें शायद उठा ले जायेंगे
जब कभी कालेज से कुछ लड़के निकाले जायेंगे

हो सके तो दूसरी कोई जगह दे दीजिये
आँख का काजल तो चन्द आँसू बहा ले जायेंगे

कच्ची सड़कों पर लिपट कर बैलगाड़ी रो पड़ी
ग़ालिबन परदेस को कुछ गाँव वाले जायेंगे

हम तो एक अखबार से काटी हुई तसवीर हैं
जिसको काग़ज़ चुनने वाले कल उठा ले जायेंगे

हादसों की गर्द से ख़ुद को बचाने के लिये
माँ, हम अपने साथ बस तेरी दुआ ले जायेंगे

सियासत बांधती है पाँव में जब मज़हबी घुंघरू

सियासत बांधती है पाँव में जब मज़हबी घुंघरू
मेरे जैसे तो फिर घर से निकलना छोड़ देते हैं

अगर मंदिर तुम्हारा है अगर मस्जिद हमारी है
तो फिर हम आज से ये अपना दावा छोड़ देते हैं

ये नफरत में बुझे तीरों से हमको डर नहीं लगता
अगर तू प्यार से कह दे तो दुनिया छोड़ देते हैं

धँसती हुई क़ब्रों की तरफ़ देख लिया था

धँसती हुई क़ब्रों की तरफ़ देख लिया था
माँ-बाप के चेहरों की तरफ़ देख लिया था

दौलत से मुहब्बत तो नहीं थी मुझे लेकिन
बच्चों ने खिलौनों की तरफ़ देख लिया था

उस दिन से बहुत तेज़ हवा चलने लगी है
बस मैंने चरागों की तरफ़ देख लिया था

अब तुमको बुलन्दी कभी अच्छी न लगेगी
क्यों ख़ाकनशीनों की तरफ़ देख लिया था

तलवार तो क्या मेरी नज़र तक नही उठठीं
उस शख़्स के बच्चों की तरफ़ देख लिया था

आँखों में कोई ख़्वाब सुनहरा नहीं आता

आँखों में कोई ख़्वाब सुनहरा नहीं आता
इस झील पे अब कोई परिन्दा नहीं आता

हालात ने चेहरे की चमक देख ली वरना
दो-चार बरस में तो बुढ़ापा नहीं आता

मुद्दत से तमन्नाएँ सजी बैठी हैं दिल में
इस घर में बड़े लोगों का रिश्ता नहीं आता

इस दर्ज़ा मसायल के जहन्नुम में जला हूँ
अब कोई भी मौसम हो पसीना नहीं आता

मैं रेल में बैठा हुआ यह सोच रहा हूँ
इस दाैर में आसानी से पैसा नहीं आता

अब क़ौम की तक़दीर बदलने को उठे हैं
जिन लोगों को बचपन ही कलमा नहीं आता

बस तेरी मुहब्बत में चला आया हूँ वर्ना
यूँ सब के बुला लेने से ‘राना’ नहीं आता

क़सम देता है बच्चों की बहाने से बुलाता है

क़सम देता है बच्चों की, बहाने से बुलाता है
धुआँ चिमनी का हमको कारख़ाने से बुलाता है

किसी दिन आँसुओ! वीरान आँखों में भी आ जाओ
ये रेगिस्तान बादल को ज़माने से बुलाता है

मैं उस मौसम में भी तन्हा रहा हूँ जब सदा देकर
परिन्दे को परिन्दा आशियाने से बुलाता है

मैं उसकी चाहतों को नाम कोई दे नहीं सकता
कि जाने से बिगड़ता है न जाने से बुलाता है

नाकामियों की बाद भी हिम्मत वही रही

नाकामियों की बाद भी हिम्मत वही रही
ऊपर का दूध पी के भी ताक़त वही रही

शायद ये नेकियाँ हैं हमारी कि हर जगह
दस्तार के बग़ैर भी इज़्ज़त वही रही

मैं सर झुका के शहर में चलने लगा मगर
मेरे मुख़ालिफ़ीन में दहशत वही रही

जो कुछ मिला था माल-ए-ग़नीमत में लुट गया
मेहनत से जो कमाई थी दौलत वही रही

क़दमों में ला के डाल दीं सब नेमतें मगर
सौतेली माँ को बच्चों से नफ़रत वही रही

खाने की चीज़ें माँ ने जो भेजी हैं गाँव से
बासी भी हो गई हैं तो लज़्ज़त वही रही

इतनी तवील उम्र को जल्दी से काटना

इतनी तवील* उम्र को जल्दी से काटना
जैसे दवा की पन्नी को कैंची से काटना

छत्ते से छेड़छाड़ की आदत मुझे भी है
सीखा है मैंने शहद की मक्खी से काटना

इन्सान क़त्ल करने के जैसा तो ये भी है
अच्छे-भले शजर* को कुल्हाड़ी से काटना

पानी का जाल बुनता है दरिया तो फिर बुने
तैराक जानता है हथेली से काटना

रहता है दिन में रात के होने का इंतज़ार
फिर रात को दवाओं की गोली से काटना

ये फ़न कोई फ़क़ीर सिखाएगा आपको
हीरे को एक फूल की पत्ती से काटना

मुमकिन है मैं दिखाई पड़ूँ एक दिन तुम्हें
यादों का जाल ऊन की तीली से काटना

इक उम्र तक बज़ुर्गों के पैरों मे बैठकर
पत्थर को मैंने सीखा है पानी से काटना

* तवील - लम्बी
* शजर - पेड
* फ़न - तरीका

उम्मीद भी किरदार पे पूरी नहीं उतरी

उम्मीद भी किरदार पे पूरी नहीं उतरी
ये शब* दिले-बीमार पे पूरी नहीं उतरी

क्या ख़ौफ़ का मंज़र था तेरे शहर में कल रात
सच्चाई भी अख़बार में पूरी नहीं उतरी

तस्वीर में एक रंग अभी छूट रहा है
शोख़ी अभी रुख़सार* पे पूरी नहीं उतरी

पर उसके कहीं,जिस्म कहीं, ख़ुद वो कहीं है
चिड़िया कभी मीनार पे पूरी नहीं उतरी

एक तेरे न रहने से बदल जाता है सब कुछ
कल धूप भी दीवार पे पूरी नहीं उतरी

मैं दुनिया के मेयार पे पूरा नहीं उतरा
दुनिया मेरे मेयार पे पूरी नहीं उतरी

* शब - रात
* रुख़सार - चेहरा

सरक़े का कोई दाग़ जबीं पर नहीं रखता

सरक़े* का कोई दाग़ जबीं* पर नहीं रखता
मैं पाँव भी ग़ैरों की ज़मीं पर नहीं रखता

दुनिया मेँ कोई उसके बराबर ही नहीं है
होता तो क़दम अर्शे बरीं पर नहीं रखता

कमज़ोर हूँ लेकिन मेरी आदत ही यही है
मैं बोझ उठा लूँ कहीं पर नहीं रखता

इंसाफ़ वो करता है गवाहों की मदद से
ईमान की बुनियाद यक़ीं पर नहीं रखता

इंसानों को जलवाएगी कल इस से ये दुनिया
जो बच्चा खिलौना भी ज़मीं पर नहीं रखता

* सरक़े- चोरी
* जबीं -माथे

इतना रोए थे लिपटकर दरो-दीवार से हम

इतना रोए थे लिपटकर दरो-दीवार से हम
शहर में आ के बहुत दिन रहे बीमार-से हम

अपने बिकने का बहुत दुख है हमें भी लेकिन
मुस्कुराते हुए मिलते हैँ खरीददार से हम

सुलह भी इससे हुई जंग में भी साथ रही
मुख़तलिफ़* काम लिया करते हैं तलवार से हम

संग* आते थे बहुत चारों तरफ़ से घर में
इसलिए डरते हैं अब शाख़े-समरदार* से हम

सायबाँ* हो तेरा आँचल हो कि छत हो लेकिन
बच नहीं सकते हैं रुस्वाई की बौछार से हम

*  मुख़तलिफ़ - विभिन्न
*  संग - पत्थर
*  शाख़े-समरदार -फलों वाली डाली
*  सायबाँ - छ्ज्जा

ये सलतनत मिली है फ़कीरों से इसलिए

ये सलतनत मिली है फ़कीरों से इसलिए
लहजे में गुफ़्तगू में चमक बरक़रार है

मुद्दत से उसने पाँव ज़मीं पर नहीं धरे
पाज़ेब में अभी भी छनक बरक़रार है

वो आइने के सामने जाता नहीं कभी
अच्छा है उसमें थोड़ी सी झिझक बरक़रार है

हाँ इजाज़त है अगर कोई कहानी और है

हाँ इजाज़त है अगर कोई कहानी और है
इन कटोरों में अभी थोड़ा सा पानी और है

मज़हबी मज़दूर सब बैठे हैं इनको काम दो
इक इमारत शहर में काफी पुरानी और है

खामोशी कब चीख़ बन जाये किसे मालूम है
ज़ुल्म कर लो जब तलक ये बेज़बानी और है

ख़ुश्क पत्ते आँख में चुभते हैं काँटों की तरह
दश्त* में फिरना अलग है बाग़बानी और है

फिर वही उकताहटें होंगी बदन चौपाल में
उम्र के क़िस्से में थोड़ी-सी जवानी और है

बस इसी अहसास की शिद्दत ने बूढ़ा कर दिया
टूटे-फूटे घर में इक लड़की सयानी और है

* दश्त - जंगल

जब साफगोई को फैशन बना लिया मैंने

जब साफगोई को फैशन बना लिया मैंने
हर एक शख्स को दुशमन बना लिया मैंने

हुई न पूरी जरूरत जब चार पैसों की
तो अपनी जेब को दामन बना लिया मैंने

शबे-फिराक* शबे-वसल* में हुई तब्दील
खयाले-यार को दुल्हन बना लिया मैंने

चमन में जब ना इज़ाज़त मिली रिहाइश की
तो बिज़लीयों में नशेमन बना लिया मैंने

* शबे-फिराक - विरह की रात
* शबे-वसल - मिलन की रात
* नशेमन - घोंसला

न कमरा जान पाता है, न अँगनाई समझती है

न कमरा जान पाता है, न अँगनाई समझती है
कहाँ देवर का दिल अटका है भौजाई समझती है

हमारे और उसके बीच एक धागे का रिश्ता है
हमें लेकिन हमेशा वो सगा भाई समझती है

तमाशा बन के रह जाओगे तुम भी सबकी नज़रों में
ये दुनिया दिल के टाँकों को भी तुरपाई समझती है

नहीं तो रास्ता तकने आँखें बह गईं होतीं
कहाँ तक साथ देना है ये बीनाई* समझती है

मैं हर ऐज़ाज़* को अपने हुनर से कम समझता हूँ
हुक़ुमत भीख देने को भी भरपाई समझती है

हमारी बेबसी पर ये दरो-दीवार रोते हैं
हमारी छटपटाहट क़ैद-ए-तन्हाई समझती है

अगर तू ख़ुद नहीं आता तो तेरी याद ही आए
बहुत तन्हा हमें कुछ दिन से तन्हाई समझती है

* बीनाई - दृष्टि
* ऐजाज़ - पुरस्कार

कहीं पर छुप के रो लेने को तहख़ाना भी होता था

कहीं पर छुप के रो लेने को तहख़ाना भी होता था
हर एक आबाद घर में एक वीराना भी होता था

तयम्मुम* के लिए लिए मिट्टी का टुकड़ा तक नहीं मिलता
अभी कल तक घरों में एक वुज़ूख़ाना* भी होता था

ये आँखें जिनमें एक मुद्दत से आँसू तक नहीं आए
उन्हीं आँखों में पहले एक मयख़ाना भी होता था

अभी इस बात को शायद ज्यादा दिन नहीं गुज़रे
तसव्वुर* में हमारे एक परीख़ाना भी होता था

मुहब्ब्त इतनी सस्ती भी नहीं थी उस ज़माने तक
मुहब्बत करने वाला पहले दीवाना  भी होता था

सभी कड़ियाँ सलामत थीं हमारे बीच रिश्तों की
हमें गाहे-ब-गाहे* अपने घर जाना भी होता था

मियाँ पंजाब में लाहौर ही शामिल न था पहले
इसी के खेत खलिहानों में हरियाना भी होता था

* तयम्मुम - नमाज़ पढ़ने से पहले, पानी न मिलने पर मिट्टी को छू कर हाथ पैर मलना
* वुज़ूख़ाना- वह स्थान जहाँ नमाज़ पढ़ने से पहले वजू (हाथ, पैर , मुँह धोना ) करते है
* तसव्वुर - कल्पना
* गाहे-ब-गाहे - यदा-कदा

कहीं पर छुप के रो लेने को तहख़ाना भी होता था

कहीं पर छुप के रो लेने को तहख़ाना भी होता था
हर एक आबाद घर में एक वीराना भी होता था

तयम्मुम* के लिए लिए मिट्टी का टुकड़ा तक नहीं मिलता
अभी कल तक घरों में एक वुज़ूख़ाना* भी होता था

ये आँखें जिनमें एक मुद्दत से आँसू तक नहीं आए
उन्हीं आँखों में पहले एक मयख़ाना भी होता था

अभी इस बात को शायद ज्यादा दिन नहीं गुज़रे
तसव्वुर* में हमारे एक परीख़ाना भी होता था

मुहब्ब्त इतनी सस्ती भी नहीं थी उस ज़माने तक
मुहब्बत करने वाला पहले दीवाना  भी होता था

सभी कड़ियाँ सलामत थीं हमारे बीच रिश्तों की
हमें गाहे-ब-गाहे* अपने घर जाना भी होता था

मियाँ पंजाब में लाहौर ही शामिल न था पहले
इसी के खेत खलिहानों में हरियाना भी होता था

* तयम्मुम - नमाज़ पढ़ने से पहले, पानी न मिलने पर मिट्टी को छू कर हाथ पैर मलना
* वुज़ूख़ाना- वह स्थान जहाँ नमाज़ पढ़ने से पहले वजू (हाथ, पैर , मुँह धोना ) करते है
* तसव्वुर - कल्पना
* गाहे-ब-गाहे - यदा-कदा

फ़क़ीरों में उठे बैठे हैं शाहाना गुज़ारी है

फ़क़ीरों में उठे बैठे हैं शाहाना* गुज़ारी है
अभी तक जितनी गुज़री है फ़क़ीराना गुज़ारी है

हमारी तरह मिलते तो ज़मीं तुमसे भी खुल जाती
मगर तुमने न जाने कैसे मौलाना गुज़ारी है

न हम दुनिया से उलझे हैं न दुनिया हमसे उलझी है
कि इक घर में रहे हैं और जुदा-गाना* गुज़ारी है

नज़र नीची किये गुज़रा हूँ मैं दुनिया के मेले में
ख़ुदा का शुक्र है अब तक हिजाबाना* गुज़ारी है

चलो कुछ दिन की ख़ातिर फिर तुम्हें हम भूल जाते हैं
कि हमने तो हमेशा सू-ए-वीराना* गुज़ारी है

* शाहाना - राजसी ठाठ-बाठ से
* जुदा-गाना - अलग-अलग
* हिजाबाना - पर्दे में रहकर
* सू-ए-वीराना - निर्जनता में

मैं खुल के हँस तो रहा हूँ फ़क़ीर होते हुए

मैं खुल के हँस तो रहा हूँ फ़क़ीर होते हुए
वो मुस्कुरा भी न पाया अमीर होते हुए

यहाँ पे इज़्ज़तें मरने के बाद मिलती हैं
मैं सीढ़ियों पे पड़ा हूँ कबीर होते हुए

अजीब खेल है दुनिया तेरी सियासत का
मैं पैदलों से पिटा हूँ वज़ीर होते हुए

ये एहतेज़ाज़*  की धुन का ख़याल रखते हैं
परिंदे चुप नहीं रहते असीर* होते हुए

नये तरीक़े से मैंने ये जंग जीती है
कमान फेंक दी तरकश में तीर होते हुए

जिसे भी चाहिए मुझसे दुआएँ ले जाए
लुटा रहा हूँ मैं दौलत फ़क़ीर होते हुए

तमाम चाहने वालों को भूल जाते हैं
बहुत से लोग तरक़्क़ी-पज़ीर* होते हुए

* एहतेज़ाज़ - आनंद
* असीर - बंदी
* तरक़्क़ी-पज़ीर -  प्रगतिशील

मेरी चाहत का फ़क़ीरी से सिरा मिलता है

मेरी चाहत का फ़क़ीरी से सिरा मिलता है
कोई नंबर भी मिलाता हूँ तेरा मिलता है

तुम इन आँखों के बरसने से परेशाँ क्यों हो
ऐसे मौसम में तो हर पेड़ हरा मिलता है
एक दीया गाँव में हर रोज़ बुझाती है हवा
रोज़ फुटपाथ पर एक शख़्स मरा मिलता है

ऐ मुहब्बत तुझे किस ख़ाने में रक्खा जाए
शहर का शहर तो नफ़रत से भरा मिलता है

आपसे मिलके ये अहसास है बाक़ी कि अभी
इस सियासत में भी इंसान खरा मिलता है

ये सियासत है तो फिर मुझको इजाज़त दी जाए
जो भी मिलता है यहाँ ख़्वाजा-सरा* मिलता है

* ख़्वाजा-सरा - हिजड़ा

तुम उचटती-सी एक नज़र डालो

तुम उचटती-सी एक नज़र डालो
जाम ख़ाली इसको भर डालो

दोस्ती का यही तक़ाज़ा है
अपना इल्ज़ाम मेरे सर डालो

फ़ैसला बाद में भी कर लेना
पहले हालात पर नज़र डालो

ज़िंदगी जब बहुत उदास लगे
कोई छोटा गुनाह कर डालो

मैं फ़क़ीरी में भी सिकंदर हूँ
मुझपे दौलत का मत असर डालो

किसी भी मोड़ पर तुमसे वफ़ादारी नहीं होगी

किसी भी मोड़ पर तुमसे वफ़ादारी नहीं होगी
हमें मालूम है तुमको ये बीमारी नहीं होगी

तआल्लुक़ की सभी शमाएँ बुझा दीं इसलिए मैंने
तुम्हें मुझसे बिछड़ जाने में दुश्वारी नहीं होगी

मेरे भाई वहाँ पानी से रोज़ा खोलते होंगे
हटा लो सामने से मुझसे इफ़्तारी नहीं होगी

ज़माने से बचा लाए तो उसको मौत ने छीना
मुहब्बत इस तरह पहले कभी हारी नहीं होगी

उदास रहता है बैठा शराब पीता है

उदास रहता है बैठा शराब पीता है
वो जब भी होता है तन्हा शराब पीता है

तुम्हारी आँखों की तौहीन है ज़रा सोचो
तुम्हारा चाहने वाला शराब पीता है

वो मेरे होंठों पे रखता है फूल-सी आँखें
ख़बर उड़ाओ कि ‘राना’ शराब पीता है

मेरी मज़लूमियत पर ख़ून पत्थर से निकलता है
मेरी मज़लूमियत पर ख़ून पत्थर से निकलता है
मगर दुनिया समझती है मेरे सर से निकलता है

ये सच है चारपाई साँप से महफ़ूज़ रखती है
मगर जब वक़्त आ जाए तो छप्पर से निकलता है

हमें बच्चों का मुस्तक़बिल* लिए फिरता है सड़कों पर
नहीं तो गर्मियों में कब कोई घर से निकलता है

* मुस्तक़बिल - भविष्य

बस इतनी बात पर उसने हमें बलवाई लिक्खा है

बस इतनी बात पर उसने हमें बलवाई लिक्खा है
हमारे घर के बरतन पे आई.एस.आई लिक्खा है

यह मुमकिन ही नहीं छेड़ूँ न तुझको रास्ता चलते
तुझे ऐ मौत मैंने उम्र भर भौजाई लिक्खा है

मियाँ मसनद नशीनी मुफ़्त में कब हाथ आती है
दही को दूध लिक्खा दूध को बालाई लिक्खा है

कई दिन हो गए सल्फ़ास खा कर मरने वाली को
मगर उसकी हथेली पर अभी शहनाई लिक्खा है

हमारे मुल्क में इन्सान अब घर में नहीं रहते
कहीं हिन्दू कहीं मुस्लिम कहीं ईसाई लिक्खा है

यह दुख शायद हमारी ज़िन्दगी के साथ जाएगा
कि जो दिल पर लगा है तीर उस पर भाई लिक्खा है

जो हुक़्म देता है वो इल्तिजा भी करता है

जो हुक़्म देता है वो इल्तिजा* भी करता है
ये आसमान कहीं पर झुका भी करता है

मैं अपनी हार पे नादिम* हूँ इस यक़ीन के साथ
कि अपने घर की हिफ़ाज़त ख़ुदा भी करता है

तू बेवफ़ा है तो इक बुरी ख़बर सुन ले
कि इंतज़ार मेरा दूसरा भी करता है

हसीन लोगों से मिलने पे एतराज़ न कर
ये जुर्म वो है जो शादीशुदा भी करता है

हमेशा ग़ुस्से में नुक़सान ही नहीं होता
कहीं -कहीं ये बहुत फ़ायदा भी करता है

* इल्तिजा - अनुरोध
* नादिम - शर्मिंदा

हालाँकि हमें लौट के जाना भी नहीं है

हालाँकि हमें लौट के जाना भी नहीं है
कश्ती मगर इस बार जलाना भी नहीं है

तलवार न छूने की कसम खाई है लेकिन
दुश्मन को कलेजे से लगाना भी नहीं है

यह देख के मक़तल में हँसी आती है मुझको
सच्चा मेरे दुश्मन का निशाना भी नहीं है

मैं हूँ मेरा बच्चा है, खिलौनों की दुकाँ है
अब कोई मेरे पास बहाना भी नहीं है

पहले की तरह आज भी हैं तीन ही शायर
यह राज़ मगर सब को बताना भी नहीं है

फ़रिश्ते आकर उनके जिस्म पर ख़ुश्बू लगाते हैं

फ़रिश्ते आकर उनके जिस्म पर ख़ुश्बू लगाते हैं
वो बच्चे रेल के डिब्बों में जो झाड़ू लगाते हैं

अँधेरी रात में अक्सर सुनहरी मिशअलें* ले कर
परिंदों की मुसीबत का पता जुगनू लगाते हैं

दिलों का हाल आसनी से कब मालूम होता है
कि पेशानी* पे चंदन तो सभी साधू लगाते हैं

ये माना आपको शोले बुझाने में महारत है
मगर वो आग जो मज़लूम* के आँसू लगाते हैं

किसी के पाँव की आहट पे दिल ऐसे उछलता है
छलाँगे जंगलों में जिस तरह आहू* लगाते हैं

बहुत मुमकिन है अब मेरा चमन वीरान हो जाए
सियासत के शजर* पर घोंसले उल्लू लगाते हैं

*मिशअलें - मशालें
*पेशानी - माथा
*मज़लूम - प्रताड़ित
*आहू - हिरण
*शजर - वृक्ष

सफ़र में जो भी हो रख़्ते-सफ़र उठाता है

सफ़र में जो भी हो रख़्ते-सफ़र* उठाता है
फलों का बोझ तो हर इक शजर* उठाता है

हमारे दिल में कोई दूसरी शबीह* नहीं
कहीं किराए पे कोई ये घर उठाता है

बिछड़ के तुझ से बहुत मुज़महिल* है दिल लेकिन
कभी कभी तो ये बीमार सर उठाता है

वो अपने काँधों पे कुन्बे का बोझ रखता है
इसीलिए तो क़दम सोचकर उठाता है

मैं नर्म मिट्टी हूँ तुम रौंद कर गुज़र जाओ
कि मेरे नाज़ तो बस क़ूज़ागर* उठाता है

*रख़्ते-सफ़र - यात्रा करने का सामान
*शजर - पेड़
*शबीह - तस्वीर
*मुज़महिल - ग़मगीन
*क़ूज़ागर - कुम्हार

जगमगाते हुए शहरों को तबाही देगा

जगमगाते हुए शहरों को तबाही देगा
और क्या मुल्क को मग़रूर* सिपाही देगा

पेड़ उम्मीदों का ये सोच के न काटा कभी
फल न आ पाएँगे इसमें तो हवा ही देगा

तुमने ख़ुद ज़ुल्म को मेयारे-हुक़ुमत* समझा
अब भला कौन तुम्हें मसनदे-शाही* देगा

जिसमें सदियों से ग़रीबों का लहू जलता हो
वो दीया रौशनी क्या देगा सियाही देगा

मुंसिफ़े-वक़्त* है तू और मैं मज़लूम* मगर
तेरा क़ानून मुझे फिर भी सज़ा ही देगा

किस में हिम्मत है जो सच बात कहेगा ‘राना’
कौन है अब जो मेरे हक़ में गवाही देगा

* मग़रूर - घमण्डी,दम्भी
* मेयारे-हुक़ुमत - प्रशासन का मानदण्ड
* मसनदे-शाही - राजसी प्रतिष्ठा
* मुंसिफ़े-वक़्त - समय के न्यायकर्त्ता
* मज़लूम - प्रताड़ित

ख़ूबसूरत झील में हँसता कँवल भी चाहिए

ख़ूबसूरत झील में हँसता कँवल भी चाहिए
है गला अच्छा तो फिर अच्छी ग़ज़ल भी चाहिए

उठ के इस हँसती हुई दुनिया से जा सकता हूँ मैं
अहले-महफ़िल* को मगर मेरा बदल* भी चाहिए

सिर्फ़ फूलों से सजावट पेड़ की मुम्किन नहीं
मेरी शाख़ों को नए मौसम में फल भी चाहिए

ऐ मेरी ख़ाके- वतन* ! तेरा सगा बेटा हूँ मैं
क्यों रहूँ फुटपाथ पर मुझको महल भी चाहिए

धूप वादों की बुरी लगने लगी है अब हमें
सिर्फ़ तारीफ़ें नहीं उर्दू का हल भी चाहिए

तूने सारी बाज़ियाँ जीती हैं मुझपर बैठ कर
अब मैं बूढ़ा हो रहा हूँ अस्तबल भी चाहिए

* अहले-महफ़िल - सभा वालों को
* बदल - स्थानापन्न
* ख़ाके- वतन - स्वदेश रज

अगर दौलत से ही सब क़द का अंदाज़ा लगाते हैं

अगर दौलत से ही सब क़द का अंदाज़ा लगाते हैं
तो फिर ऐ मुफ़लिसी हम दाँव पर कासा लगाते हैं

उन्हीं को सर बुलन्दी भी अता होती है दुनिया में
जो अपने सर के नीचे हाथ का तकिया लगाते हैं

हमारा सानहा है ये कि इस दौरे हुकूमत में
शिकारी के लिए जंगल में हम हाँका लगाते हैं

वो शायर हों कि आलिम हों कि ताजिर या लुटेरे हों
सियासत वो जुआ है जिसमें सब पैसा लगाते हैं

उगा रक्खे हैं जंगल नफ़रतों के सारी बस्ती में
मगर गमले में मीठी नीम का पौधा लगाते हैं

ज़्यादा देर तक मुर्दे कभी रक्खे नहीं जाते
शराफ़त के जनाज़े को चलो काँधा लगाते हैं

ग़ज़ल की सल्तनत पर आजतक क़ब्ज़ा हमारा है
हम अपने नाम के आगे अभी "राना" लगाते हैं

हँसते हुए माँ-बाप की गाली नहीं खाते

हँसते हुए माँ-बाप की गाली नहीं खाते
बच्चे हैं तो क्यों शौक़ से मिट्टी नहीं खाते

तुमसे नहीं मिलने का इरादा तो है लेकिन
तुमसे न मिलेंगे ये क़सम भी नहीं खाते

सो जाते हैं फुटपाथ पे अख़बार बिछा कर
मज़दूर् कभी नींद की गोली नहीं खाते

बच्चे भी ग़रीबी को समझने लगे शायद
अब जाग भी जाते हैं तो सहरी नहीं खाते

दावत तो बड़ी चीज़ है हम जैसे क़लंदर
हर एक के पैसों की दवा भी नहीं खाते

अल्लाह ग़रीबों का मददगार है ‘राना’
हम लोगों के बच्चे कभी सर्दी नहीं खाते

अमीरे-शहर को तलवार करने वाला हूँ

अमीरे-शहर को तलवार करने वाला हूँ
मैं जी-हुज़ूरी से इन्कार करने वाला हूँ

कहो अँधेरे से दामन समेट ले अपना
मैं जुगनुओं को अलमदार* करने वाला हूँ

तुम अपने शहर के हालात जान सकते हो
मैं अपने-आपको अख़बार करने वाला हूँ

मैं चाहता था कि छूटे न साथ भाई का
मगर वो समझा कि मैं वार करने वाला हूँ

बदन का कोई भी हिस्सा ख़रीद सकते हो
मैं अपने जिस्म को बाज़ार करने वाला हूँ

तुम अपनी आँखों से सुनना मेरी कहानी को
लबे-ख़ामोश* से इज़हार*  करने वाला हूँ

हमारी राह में हाएल* कोई नहीं होगा
तू एक दरिया है मैं पार करने वाला हूँ

*अलमदार - झण्डा लेकर चलने वाला
*लबे-ख़ामोश - चुप होंठों से
*इज़हार - अभिव्यक्त
*हाएल - बाधा

किसी भी ग़म के सहारे नहीं गुज़रती है

किसी भी ग़म के सहारे नहीं गुज़रती है
ये ज़िंदगी तो गुज़ारे नहीं गुज़रती है

कभी चराग़ तो देखो जुनूँ की हालत में
हवा तो ख़ौफ़ के मारे नहीं गुज़रती है

नहीं-नहीं ये तुम्हारी नज़र का धोखा है
अना तो हाथ पसारे नहीं गुज़रती है

मेरी गली से गुज़रती है जब भी रुस्वाई
वग़ैर मुझको पुकारे नहीं गुज़रती है

मैं ज़िंदगी तो कहीं भी गुज़ार सकता हूँ
मगर बग़ैर तुम्हारे नहीं गुज़रती है

हमें तो भेजा गया है समंदरों के लिए
हमारी उम्र किनारे नहीं गुज़रती है

कई घर हो गए बरबाद ख़ुद्दारी बचाने में

कई घर हो गए बरबाद ख़ुद्दारी* बचाने में
ज़मीनें बिक गईं सारी ज़मींदारी बचाने में

कहाँ आसान है पहली मुहब्बत को भुला देना
बहुत मैंने लहू थूका है घरदारी बचाने में

कली का ख़ून कर देते हैं क़ब्रों को बचाने में
मकानों को गिरा देते हैं फुलवारी बचाने में

कोई मुश्किल नहीं है ताज उठाना पहन लेना
मगर जानें चली जाती हैं सरदारी बचाने में

बुलावा जब बड़े दरबार से आता है ऐ राना
तो फिर नाकाम हो जाते हैं दरबारी बचाने में

*ख़ुद्दारी - आत्म-सम्मान

उड़के यूँ छत से कबूतर मेरे सब जाते हैं

उड़के यूँ छत से कबूतर मेरे सब जाते हैं
जैसे इस मुल्क से मज़दूर अरब जाते हैं

हमने बाज़ार में देखे हैं घरेलू चेहरे
मुफ़लिसी* तुझसे बड़े लोग भी दब जाते हैं

कौन हँसते हुए हिजरत* पे हुआ है राज़ी
लोग आसानी से घर छोड़ के कब जाते हैं

और कुछ रोज़ के मेहमान हैं हम लोग यहाँ
यार बेकार हमें छोड़ के अब जाते हैं

लोग मशकूक* निगाहों से हमें देखते हैं
रात को देर से घर लौट के जब जाते हैं

*मुफ़लिसी - दरिद्रता,ग़रीबी
*हिजरत - अपने वतन को छोड़ कर जाना
*मशकूक - संदिग्ध

वो मुझे जुर्रते-इज़्हार से पहचानता है

वो मुझे जुर्रते-इज़्हार* से पहचानता है
मेरा दुश्मन भी मुझे वार से पहचानता है

शहर वाक़िफ़ है मेरे फ़न की बदौलत मुझसे
आपको जुब्बा-ओ-दस्तार* से पहचानता है

फिर क़बूतर की वफ़ादारी पे शक मत करना
वो तो घर को इसी मीनार से पहचानता है

कोई दुख हो कभी कहना नहीं पड़ता उससे
वो ज़रूरत को तलबगार* से पहचानता है

उसको ख़ुश्बू को परखने का सलीक़ा ही नहीं
फूल को क़ीमते-बाज़ार* से पहचानता है

*जुर्रते-इज़्हार - अभिव्यक्ति के साहस
*जुब्बा-ओ-दस्तार - पहरावे और पगड़ी से
*तलबगार - ज़रूरतमंद
*क़ीमते-बाज़ार - बाज़ारी-मूल्य

कुछ मेरी वफ़ादारी का इनाम दिया जाये

कुछ मेरी वफ़ादारी का इनाम दिया जाये
इल्ज़ाम ही देना है तो इल्ज़ाम दिया जाये

ये आपकी महफ़िल है तो फिर कुफ़्र है इनकार
ये आपकी ख़्वाहिश है तो फिर जाम दिया जाये

तिरशूल कि तक्सीम अगर जुर्म नहीं है
तिरशूल बनाने का हमें काम दिया जाये

कुछ फ़िरक़ापरस्तों के गले बैठ रहे हैं
सरकार ! इन्हें रोग़ने- बादाम दिया जाये

मेरी थकन के हवाले बदलती रहती है

मेरी थकन के हवाले* बदलती रहती है
मुसाफ़िरत* मेरे छाले बदलती रहती है

मैं ज़िंदगी! तुझे कब तक बचा के रखूँगा
ये मौत रोज़ निवाले बदलती रहती है

ख़ुदा बचाए हमें मज़हबी सियासत से
ये खेल खेल में पाले बदलती रहती है

उम्मीद रोज़ वफ़ादार ख़ादिमा* की तरह
तसल्लियों के प्याले बदलती रहती है

तुझे ख़बर नहीं शायद कि तेरी रुस्वाई*
हमारे होंठों के ताले बदलती रहती है

हमारी आरज़ू मासूम लड़कियों की तरह
सहेलियों से दुशाले बदलती रहती है

बड़ी अजीब है दुनिया तवायफ़ों की तरह
हमेशा चाहने वाले बदलती रहती है

*हवाले - संदर्भ
*मुसाफ़िरत - यात्रा
*ख़ादिमा - नौकरानी
*रुस्वाई - बदनामी
ऐन ख़्वाहिश के मुताबिक़ सब उसी को मिल गया

ऐन ख़्वाहिश के मुताबिक़ सब उसी को मिल गया
काम तो ‘ठाकुर’ ! तुम्हारे आदमी को मिल गया

फिर तेरी यादों की शबनम ने जगाया है मुझे
फिर ग़ज़ल कहने का मौसम शायरी मिल गया

याद रखना भीख माँगेंगे अँधेरे रहम की
रास्ता जिस दिन कहीं से रौशनी को मिल गया

इसलिए बेताब हैं आँसू निकलने के लिए
पाट चौड़ा आज आँखों की नदी को मिल गया

आज अपनी हर ग़लतफ़हमी पे ख़ुद हँसता हूँ मैं
साथ में मौक़ा मुनाफ़िक़* की हँसी को मिल गया

*मुनाफ़िक़ - प्रत्यक्ष रूप से मित्र-भाव किंतु मन में द्वेश रखने वाला

न मैं कंघी बनाता हूँ न मैं चोटी बनाता हूँ

न मैं कंघी बनाता हूँ न मैं चोटी बनाता हूँ
ग़ज़ल में आपबीती को मैं जगबीती बनाता हूँ

ग़ज़ल वह सिन्फ़-ए-नाज़ुक़ है जिसे अपनी रफ़ाक़त से
वो महबूबा बना लेता है मैं बेटी बनाता हूँ

हुकूमत का हर एक इनआम है बंदूकसाज़ी पर
मुझे कैसे मिलेगा मैं तो बैसाखी बनाता हूँ

मेरे आँगन की कलियों को तमन्ना शाहज़ादों की
मगर मेरी मुसीबत है कि मैं बीड़ी बनाता हूँ

सज़ा कितनी बड़ी है गाँव से बाहर निकलने की
मैं मिट्टी गूँधता था अब डबल रोटी बनाता हूँ

वज़ारत चंद घंटों की महल मीनार से ऊँचा
मैं औरंगज़ेब हूँ अपने लिए खिचड़ी बनाता हूँ

बस इतनी इल्तिजा है तुम इसे बर्बाद मत करना
तुम्हें इस मुल्क का मालिक मैं जीते-जी बनाता हूँ

मुझे इस शहर की सब लड़कियाँ आदाब करती हैं
मैं बच्चों की कलाई के लिए राखी बनाता हूँ

तुझे ऐ ज़िन्दगी अब क़ैदख़ाने से गुज़रना है
तुझे मैँ इस लिए दुख-दर्द का आदी बनाता हूँ

मैं अपने गाँव का मुखिया भी हूँ बच्चों का क़ातिल भी
जलाकर दूध कुछ लोगों की ख़ातिर घी बनाता हूँ

सियासत से अदब की दोस्ती बेमेल लगती है

सियासत से अदब की दोस्ती बेमेल लगती है
कभी देखा है पत्थर पे भी कोई बेल लगती है

ये सच है हम भी कल तक ज़िन्दगी पे नाज़ करते थे
मगर अब ज़िन्दगी पटरी से उतरी रेल लगती है

ग़लत बाज़ार की जानिब चले आए हैं हम शायद
चलो संसद में चलते हैं वहाँ भी सेल लगती है

कोई भी अन्दरूनी गन्दगी बाहर नहीं होती
हमें तो इस हुक़ूमत की भी किडनी फ़ेल लगती है


किसी का क़द बढ़ा देना किसी के क़द को कम कहना

किसी का क़द बढ़ा देना किसी के क़द को कम कहना
हमें आता नहीं ना-मोहतरम को मोहतरम कहना

चलो मिलते हैं मिल-जुल कर वतन पर जान देते हैं
बहुत आसान है कमरे में बन्देमातरम कहना

बहुत मुमकिन है हाले-दिल वो मुझसे पूछ ही बैठे
मैं मुँह से कुछ नहीं बोलूँगा तू ही चश्मे-नम कहना

ज़रूरत  से अना का भारी पत्थर टूट जाता है

ज़रूरत  से अना का भारी पत्थर टूट जाता है
मगर फिर आदमी भी अन्दर -अन्दर टूट जाता है

ख़ुदा के वास्ते इतना न मुझको टूटकर चाहो
ज़्यादा भीख मिलने से गदागर टूट जाता है

तुम्हारे शहर में रहने को तो रहते हैं हम लेकिन
कभी हम टूट जाते हैं कभी घर टूट जाता है

खिलौने की तरफ़ बच्चे को माँ जाने नहीं देती

खिलौने की तरफ़ बच्चे को माँ जाने नहीं देती
मगर आगे खिलौनों की दुकाँ जाने नहीं देती

अना ने मेरे बच्चों की हँसी भी छीन ली मुझसे
यहाँ जाने नहीं देती वहाँ जाने नहीं देती

ज़रूरत रोज़ हिजरत के लिए आवाज़ देती है
मुहब्बत छोड़कर हिन्दोस्ताँ जाने नहीं देती

खिलौने की तरफ़ बच्चे को माँ जाने नहीं देती

खिलौने की तरफ़ बच्चे को माँ जाने नहीं देती
मगर आगे खिलौनों की दुकाँ जाने नहीं देती

अना ने मेरे बच्चों की हँसी भी छीन ली मुझसे
यहाँ जाने नहीं देती वहाँ जाने नहीं देती

ज़रूरत रोज़ हिजरत के लिए आवाज़ देती है
मुहब्बत छोड़कर हिन्दोस्ताँ जाने नहीं देती

कुछ रोज़ से हम सिर्फ़ यही सोच रहे हैं

कुछ रोज़ से हम सिर्फ़ यही सोच रहे हैं
अब हमको किसी बात का ग़म क्यों नहीं होता

पत्थर हूँ तो क्यों तोड़ने वाले नहीं आते
सर हूँ तो तेरे सामने ख़म क्यों नहीं होता

जब मैंने ही शहज़ादी की तस्वीर बनाई
दरबार में ये हाथ क़लम क्यों नहीं होता

पानी है तो क्यों जानिब-ए-दरिया नहीं जाता
आँसू है तो तेज़ाब में ज़म क्यों नहीं होता

वो महफ़िल में नहीं खुलता है तनहाई में खुलता है

वो महफ़िल में नहीं खुलता है तनहाई में खुलता है
समुन्दर कितना गहरा है ये गहराई में खुलता है

जब उससे गुफ़्तगू कर ली तो फिर शजरा नहीं पूछा
हुनर बखियागरी का एक तुरपाई में खुलता है

हमारे साथ रहता है वो दिन भर अजनबी बन कर
हमेशा चांद हमसे शब की तनहाई में खुलता है

मेरी आँखें जहाँ पर भी खुलें वो पास होते हैं
ये दरवाज़ा हमेशा उसकी अँगनाई में खुलता है

मेरी तौबा खड़ी रहती है सहमी लड़कियों जैसी
भरम तक़वे का उसकी एक अँगड़ाई में खुलता है

फ़क़त ज़ख़्मों से तक़लीफ़ें कहाँ मालूम होती हैं
पुरानी कितनी चोटें हैं ये पुरवाई में खुलता है

बहुत हसीन-सा इक बाग़ घर के नीचे है

बहुत हसीन-सा इक बाग़ घर के नीचे है
मगर सुकून पुराने शजर के नीचे है

मुझे कढ़े हुए तकियों की क्या ज़रूरत है
किसी का हाथ अभी मेरे सर के नीचे है

ये हौसला है जो मुझसे उख़ाब डरते हैं
नहीं तो गोश्त कहाँ बाल-ओ-पर के नीचे है

उभरती डूबती मौजें हमें बताती हैं
कि पुर सुकूत समन्दर भँवर के नीचे है

बिलख रहे हैं ज़मीनों पे भूख से बच्चे
मेरे बुज़ुर्गों की दौलत खण्डर के नीचे है

अब इससे बढ़ के मोहब्बत का कुछ सुबूत नहीं
कि आज तक तेरी तस्वीर सर के नीचे है

मुझे ख़बर नहीं जन्नत बड़ी कि माँ, लेकिन
बुज़ुर्ग कहते हैं जन्नत बशर के नीचे है

इसी गली में वो भूखा किसान रहता है

इसी गली में वो भूखा किसान रहता है
ये वो ज़मीन है जहाँ आसमान रहता है

मैं डर रहा हूँ हवा से ये पेड़ गिर न पड़े
कि इस पे चिडियों का इक ख़ानदान रहता है

सड़क पे घूमते पागल की तरह दिल है मेरा
हमेशा चोट का ताज़ा निशान रहता है

तुम्हारे ख़्वाबों से आँखें महकती रहती हैं
तुम्हारी याद से दिल जाफ़रान रहता है

हमें हरीफ़ों की तादाद क्यों बताते हो
हमारे साथ भी बेटा जवान रहता है

सजाये जाते हैं मक़तल मेरे लिये ‘राना’
वतन में रोज़ मेरा इम्तहान रहता है

हर एक शख़्स खफ़ा-सा दिखाई देता है

हर एक शख़्स खफ़ा-सा दिखाई देता है
चहार सम्त कुहासा दिखाई देता है

हर इक नदी उसे सैराब कर चुकी है मगर
समन्दर आज भी प्यासा दिखाई देता है

ज़रूरतों ने अजब हाल कर दिया है अब
तमाम जिस्म ही कासा दिखाई देता है

वहाँ पहुँच के ज़मीनों को भूल जाओगे
यहाँ से चाँद ज़रा-सा दिखाई देता है

खिलेंगे फूल अभी और भी जवानी के
अभी तो एक मुँहासा दिखाई देता है

मैं अपनी जान बचाकर निकल नहीं सकता
कि क़ातिलों में शनासा दिखाई देता है

नुमाइश के लिए गुलकारियाँ दोनों तरफ़ से हैं

नुमाइश के लिए गुलकारियाँ दोनों तरफ़ से हैं
लड़ाई की मगर तैयारियाँ दोनों तरफ़ से हैं

मुलाक़ातों पे हँसते-बोलते हैं, मुस्कराते हैं
तबीयत में मगर बेज़ारियाँ दोनों तरफ़ से हैं

खुले रखते हैं दरवाज़े दिलों के रात-दिन दोनों
मगर सरहद पे पहरेदारियाँ दोनों तरफ़ से हैं

उसे हालात ने रोका मुझे मेरे मसायल* ने
वफ़ा की राह में दुश्वारियाँ दोनों तरफ़ से हैं

मेरा दुश्मन मुझे तकता है, मैं दुश्मन को तकता हूँ
कि हायल* राह में किलकारियाँ दोनों तरफ़ से हैं

मुझे घर भी बचाना है वतन को भी बचाना है
मेरे कांधे पे ज़िम्मेदारियाँ दोनों तरफ़ से हैं

*मसायल - समस्याओं
*हायल - बाधक

बिछड़ेंगे तो मर जायेंगे हम दोनों बिछड़कर

पैरों को मेरे दीदा-ए-तर बाँधे हुए है
ज़ंजीर की सूरत मुझे घर बाँधे हुए है

हर चेहरे में आता है नज़र एक ही चेहरा
लगता है कोई मेरी नज़र बाँधे हुए है

बिछड़ेंगे तो मर जायेंगे हम दोनों बिछड़कर
इक डोर में हमको यही डर बाँधे हुए है

परवाज़ की ताक़त भी नहीं बाक़ी है लेकिन
सैयाद अभी तक मेरे पर बाँधे हुए है

आँखें तो उसे घर से निकलने नहीं देतीं
आँसू हैं कि सामान-ए-सफ़र बाँधे हुए है

हम हैं कि कभी ज़ब्त का दामन नहीं छोड़ा
दिल है कि धड़कन पे कमर बाँधे हुए है

फेंकी न ‘मुनव्वर’ ने बुज़ुर्गों की निशानी
दस्तार पुरानी है मगर बाँधे हुए है

अभी तक दिल के दरवाज़े पे उस दस्तक का क़ब्ज़ा है

किताब-ए-जिस्म पर इफ़लास की दीमक का क़ब्ज़ा है
जो चेहरा चाँद जैसा था वहाँ चेचक का क़ब्ज़ा है

बहुत दिन हो गए तुमने पुकारा था मुझे लेकिन
अभी तक दिल के दरवाज़े पे उस दस्तक का क़ब्ज़ा है

तेरा ग़म हुक़्मरानी कर रहा है इन दिनों दिल पर
मेरे जागीर पर मेरे ही लैपालक का क़ब्ज़ा है

मेरे जैसे बहुत -से सिरफिरों ने जान तक दे दी
मगर उर्दू ग़ज़ल पर आज भी ढोलक का क़ब्ज़ा है

ग़रीबों पर तो मौसम भी हुक़ूमत करते रहते हैं
कभी बारिश, कभी गर्मी, कभी ठंडक का क़ब्ज़ा है

मुसलसल गेसुओं की बरहमी अच्छी नहीं होती

मुसलसल गेसुओं की बरहमी अच्छी नहीं होती
हवा सबके लिए ये मौसमी अच्छी नहीं होती

न जाने कब कहाँ पर कोई तुमसे ख़ूँ बहा माँगे
बदन में ख़ून की इतनी कमी अच्छी नहीं होती

ये हम भी जानते हैं ओढ़ने में लुत्फ़ आता है
मगर सुनते हैं चादर रेशमी अच्छी नहीं होती

ग़ज़ल तो फूल -से बच्चों की मीठी मुस्कुराहट है
ग़ज़ल के साथ इतनी रुस्तमी अच्छी नहीं होती

‘मुनव्वर’ माँ के आगे यूँ कभी खुल कर नहीं रोना
जहाँ बुनियाद हो इतनी नमी अच्छी नहीं होती

नुमाइश में मगर मिट्टी का बरतन हार जाता है

शरीफ़ इन्सान आख़िर क्यों इलेक्शन हार जाता है
किताबों में तो ये लिक्खा था रावन हार जाता है

जुड़ी हैं इससे तहज़ीबें सभी तस्लीम करते हैं
नुमाइश में मगर मिट्टी का बरतन हार जाता है

मुझे मालूम है तुमने बहुत बरसातें देखी हैं
मगर मेरी इन्हीं आँखों से सावन हार जाता है

अभी मौजूद है इस गाँव की मिट्टी में ख़ुद्दारी
अभी बेवा की ग़ैरत से महाजन हार जाता है

अगर इक कीमती बाज़ार की सूरत है यह दुनिया
तो फिर क्यों काँच की चूड़ी से कंगन हार जाता है.

कहीं पे बैठ के हँसना कहीं पे रो देना

मैं अपने हल्क़ से अपनी छुरी गुज़ारता हूँ
बड़े ही कर्ब में ये ज़िन्दगी गुज़ारता हूँ

तस्सव्वुरात की दुनिया भी ख़ूब होती है
मैं रोज़ सहरा से कोई नदी गुज़ारता हूँ

मैं एक हक़ीर-सा जुगनू सही मगर फिर भी
मैं हर अँधेरे से कुछ रौशनी गुज़ारता हूँ

यही तो फ़न है कि मैं इस बुरे ज़माने में
समाअतों से नई शायरी गुज़ारता हूँ

कहीं पे बैठ के हँसना कहीं पे रो देना
मैं ज़िन्दगी भी बड़ी दोग़ली गुज़ारता हूँ

घरौंदे तोड़ कर साहिल से यूँ पानी पलटता है

घरौंदे तोड़ कर साहिल से यूँ पानी पलटता है
कि जैसे मुफ़लिसी से खेल कर ज़ानी पलटता है

किसी को देखकर रोते हुए हँसना नहीं अच्छा
ये वो आँसू हैं जिनसे तख़्त-ए-सुलतानी पलटता है

कहीं हम सरफ़रोशों को सलाख़ें रोक सकती हैं
कहो ज़िल्ले इलाही से कि ज़िन्दानी पलटता है

सिपाही मोर्चे से उम्र भर पीछे नहीं हटता
सियासतदाँ ज़बाँ दे कर बआसानी पलटता है

तुम्हारा ग़म लहू का एक-एक क़तरा निचोड़ेगा
हमेशा सूद लेकर ही ये अफ़ग़ानी पलटता है

मियाँ रुसवाई दौलत के तआवुन से नहीं जाती

मियाँ रुसवाई दौलत के तआवुन से नहीं जाती
यह कालिख उम्र भर रहती है साबुन से नहीं जाती

शकर फ़िरकापरस्ती की तरह रहती है नस्लों तक
ये बीमारी करेले और जामुन से नहीं जाती

वो सन्दल के बने कमरे में भी रहने लगा लेकिन
महक मेरे लहू की उसके नाख़ुन से नहीं जाती

इधर भी सारे अपने हैं उधर भी सारे अपने थे
ख़बर भी जीत की भिजवाई अर्जुन से नहीं जाती

मुहब्बत की कहानी मुख़्तसर होती तो है लेकिन
कही मुझसे नहीं जाती सुनी उनसे नहीं जाती

न जाने कैसा मौसम हो दुशाला ले लिया जाये

न जाने कैसा मौसम हो दुशाला ले लिया जाये
उजाला मिल रहा है तो उजाला ले लिया जाये

चलो कुछ देर बैठें दोस्तों में ग़म जरूरी है
ग़ज़ल के वास्ते थोड़ा मसाला ले लिया जाये

बड़ी होने लगी हैं मूरतें आँगन में मिट्टी की
बहुत-से काम बाक़ी हैं सँभाला ले लिया जाये

सुना है इन दिनों बाज़ार में हर चीज़ मिलती है
किसी नक़्क़ाद से कोई मकाला ले लिया जाये

नुमाइश में जब आये हैं तो कुछ लेना ज़रूरी है
चलो कोई मुहब्बत करने वाला ले लिया जाये

नक़्क़ाद - आलोचक
मकाला - लेख

थकन को ओढ़ कर बिस्तर में जाके लेट गए

थकन को ओढ़ कर बिस्तर में जाके लेट गए
हम अपनी कब्र -ऐ -मुक़र्रर में जाके लेट गए

तमाम उम्र हम एक दुसरे से लड़ते रहे
मगर मरे तो बराबर में जाके लेट गए

हमारी तश्ना नसीबी का हाल मत पुछो
वो प्यास थी के समुन्दर में जाके लेट गए

न जाने कैसी थकन थी कभी नहीं उतरी
चले जो घर से तो दफ्तर में जाके लेट गए

ये बेवक़ूफ़ उन्हे मौत से डराते हैं
जो खुद ही साया -ऐ -खंजर में जाके लेट गए

तमाम उम्र जो निकले न थे हवेली से
वो एक गुम्बद -ऐ -बेदर में जाके लेट गए

सजाये फिरते थे झूठी अना को चेहरे पर
वो लोग कसर -ऐ -सिकंदर में जाके लेट गए

हमारी बेबसी देखो उन्हें हमदर्द कहते हैं

हमारी बेबसी देखो उन्‍हें हमदर्द कहते हैं
जो उर्दू बोलने वालों को दहशतगर्द कहते हैं

मदीने तक में हमने मुल्क की ख़ातिर दुआ मांगी
किसी से पूछ ले इसको वतन का दर्द कहते हैं

किसी भी रंग को पहचानना मुश्किल नहीं होता
मेरे बच्‍चों की सूरत देख इसको ज़र्द कहते हैं

अगर दंगाइयों पर तेरा कोई बस नहीं चलता
तो फिर सुन ले हुकूमत हम तुझे नामर्द कहते हैं

वो अपने आपको सच बोलने से किस तरह रोकें
वज़ारत को जो अपनी जूतियों की गर्द कहते हैं

तुझसे मिलती जुलती होगी ऐसी गजल कह सकता हूँ

तुझसे मिलती जुलती होगी ऐसी गजल कह सकता हूँ
देख के तुझको सोच रहा हूँ मैं भी ग़ज़ल कह सकता हूँ

उससे मुझको बिछड़े हुए गो एक ज़माना बीत गया
लेकिन इतना हक़ है, उसको अपनी ग़ज़ल कह  सकता हूँ

तुझको इतना सोच चुका हूँ तुझसे इतना वाकिफ हूँ
औरों ने तो शेर कहे है मैं पुरी गजल कह सकता हूँ

तितली, फूल, परिंदे, मौसम, चेहरा, आंखें, नीली झील
ऐसे मौसम मिल जाये तो अब भी ग़ज़ल कह सकता हूँ

सुबह-सवेरे घर से चलना रात गये घर लौट के आना
जिम्मेदारी इतनी मुझ पर फिर भी ग़ज़ल कह सकता हूँ

उम्र भर ख़ाली यूँ हि दिल का मकाँ रहने दिया

उम्र भर ख़ाली यूँ हि दिल का मकाँ रहने दिया
तुम गये तो दूसरे को कब यहाँ रहने दिया

उम्र भर उसने भी मुझ से मेरा दुख पूछा नहीं
मैंने भी ख्वाहिश को अपनी बेज़बाँ रहने दिया

उसने जब भी सौँप दी है जिस्म कि उजली किताब
मैंने कुछ औराक़ उलटे कुछ को, हाँ रहने दिया

मैंने कल शब चाहतों कि सब क़िताबें फ़ाड़ दीं
सिर्फ इक कागज़ पे लिक्खा लफ़्ज़े-माँ रहने दिया

मुस्कुराहट मेरे ज़ख्मों को छुपा लेती है

मुस्कुराहट मेरे ज़ख्मों को छुपा लेती है
ये वो चादर है जो ऐबों को छुपा लेती है

मैं  भी हँसते हुए लोगों से नहीं मिलता हूँ
वो भी रोती  है तो आँखों को छुपा लेती है

इस तरह मैने तेरा राज़ छुपाया था सब से
जिस तरह घास जमीनो को छुपा लेती है

अब भी चलती है जब आँधी  कभी ग़म कि राना
माँ की ममता मुझे बाँहों मे छुपा लेती है

जो खता मैने  नहीं की उस पे पछताना पड़ा

जो खता मैने  नहीं की उस पे पछताना पड़ा
बेवफाई आपने की मुझको शरमाना पड़ा

इक जरा सी बात पर उसने मुझे ठुकरा दिया
मुझको जिसके वास्ते दुनिया को ठुकराना पड़ा

ज़िंदगी के रास्ते मे जब भी मैखाने मिले
तेरी आँखों की कसम खा कर चले आना पड़ा

किया है अपने को बर्बाद, शेर कहने लगे

किया है अपने को बर्बाद, शेर कहने लगे
जब आ गयी है तेरी याद, शेर कहने लगे

ये नहर दूध की हम भी निकाल सकते है
मजा तो जब है के फरहाद शेर कहने लगे

न देख इतनी हिकारत से हम अदीबो को
न जाने कब तेरी औलाद , शेर कहने लगे

बड़े बडो को बिगाड़ा है हमने ऐ 'राना'
हमारे लहजे में उस्ताद शेर कहने लगे

मेरे आंसू तेरा ज़ेवर नहीं होने वाले

मेरे आंसू तेरा ज़ेवर नहीं होने वाले
ये गुनहगार पयंमबर नहीं होने वाले

हमको दुनिया ने बसा रखा है दिल में अपने
हम किसी हाल में बेघर नहीं होने वाले

ये जो सूरज लिए कांधो पे फिरा करते है
मर भी जाए तो मुनव्वर नहीं होने वाले

और कुछ रोज़  यूँही बोझ उठा लो बेटा
चल दिए हम तो मयस्सर* नहीं होने वाले

* मयस्सर - लब्ध, प्राप्त

सुनो हंसी के लिए गुदगुदाना पड़ता है

सुनो हंसी के लिए गुदगुदाना पड़ता है
चराग जलता नहीं जलाना पड़ता है

क़लन्दरी भी तो हिस्सा है बादशाही का
ज़नाब ! बीच में लेकिन खज़ाना पड़ता है

मिलेगी मिटटी से एक दिन हमारी मिटटी भी
अभी ज़मीं पे क्या क्या बिछाना पड़ता है

मुशायरा भी तमाशा मदार शाह का है
यहाँ हर एक को करतब दिखाना पड़ता है

ये कौन कहता है इनकार करना मुश्किल है
मगर ज़मीर को थोडा जगाना पड़ता है

मंज़र तुम्हारे हुस्न का सबकी नज़र में है

मंज़र तुम्हारे हुस्न का सबकी नज़र में है
अब मेरे ऐतबार की कश्ती भंवर में है

तन्हा मुझे कभी ना समझना मेरे हरीफ़*
एक भाई मर चूका है मगर एक घर में है

वो तो लिखा के लाई है किस्मत में जागना
माँ कैसे सो सकेगी की बेटा सफर में है

सुनी पड़ी हुई है बहन की हथेलियाँ
फल पाक चूका है और अभी तक शज़र में है

परदेश से वतन का सफर भी अजीब है
मैं घर पहुँच गया हूँ बदन रहगुज़र में है

कल उसके दिल पे किसका हो कब्ज़ा खबर नहीं
अब तक तो ये इलाका हमारे असर में है

* हरीफ़ - विरोधी, दुश्मन

सहरा-पसंद हो के सिमटने लगा हूँ मैं

सहरा-पसंद हो के सिमटने लगा हूँ मैं
अँदर से लग रहा हूँ कि बँटने लगा हूँ मैं

क्या फिर किसी सफ़र पे निकलना है अब मुझे
दीवारो-दर से क्यों ये लिपटने लगा हूँ मैं

आते हैं जैसे- जैसे बिछड़ने के दिन करीब
लगता है जैसे रेल से कटने लगा हूँ मैं

क्या मुझमें एहतेजाज की ताक़त नहीं रही
पीछे की सिम्त किस लिए हटने लगा हूँ मैं

फिर सारी उम्र चाँद ने रक्खा मेरा ख़याल
एक रोज़ कह दिया था कि घटने लगा हूँ मैं

उसने भी ऐतबार की चादर समेट ली
शायद ज़बान दे के पलटने लगा हूँ मैं

मैं इसके नाज़ उठाता हूँ सो यह ऐसा नहीं करती

मैं इसके नाज़ उठाता हूँ सो यह ऐसा नहीं करती
यह मिट्टी मेरे हाथों को कभी मैला नहीं करती

खिलौनों की दुकानों की तरफ़ से आप क्यों गुज़रे
ये बच्चे की तमन्ना है यह समझौता नहीं करती

शहीदों की ज़मीं है जिसको हिन्दुस्तान कहते हैं
ये बंजर हो के भी बुज़दिल कभी पैदा नहीं करती

मोहब्बत क्या है दिल के सामने मजबूर हो जाना
जुलेखा वरना  यूसुफ का कभी सौदा नहीं करती

गुनहगारों की सफ़ में रख दिया मुझको ज़रूरत ने
मैं नामरहम* हूँ लेकिन मुझसे ये परदा नहीं करती

अजब दुनिया है तितली के परों को नोच लेती है
अजब तितली है पर नुचने पे भी रोया नहीं करती

* नारहम - अपवित्र

जुर्रत से हर नतीजे की परवा किये बगै़र

जुर्रत से हर नतीजे की परवा किये बगै़र
दरबार छोड़ आया हूँ सजदा किये बगै़र

ये शहरे एहतिजाज* है ख़ामोश मत रहो
हक़ भी नहीं मिलेगा तकाज़ा किये बगै़र

फिर एक इम्तिहाँ से गुज़रना है इश्क़ को
रोता है वो भी आँख को मैला किये बगै़र

पत्ते हवा का जिस्म छुपाते रहे मगर
मानी नहीं हवा भी बरहना* किये बगै़र

अब तक तो शहरे दिल को बचाए हैं हम मगर
दीवानगी न मानेगी सहरा* किये बगै़र

उससे कहो कि झूठ ही बोले तो ठीक है
जो सच बोलता न हो नश्शा किये बगै़र

* एहतिजाज  - विरोध
* बरहना - निवस्त्र
* सहरा  -  रेगिस्तान

बड़ी कड़वाहटे हैं इसलिए ऐसा नहीं होता

बड़ी कड़वाहटे हैं इसलिए ऐसा नहीं होता
शकर खाता चला जाता हूँ मुहँ मीठा नहीं होता

दवा की तरह खाते जाइये गाली बुजुर्गों की
जो अच्छे फल हैं उनका ज़ायका अच्छा नहीं होता

हमारे शहर में ऐसे मनाज़िर* रोज़ मिलते हैं
कि सब होता है चेहरे पर मगर चेहरा नहीं होता

हमारी बेरुखी की देन है बाज़ार की ज़ीनत*
अगर हम में वफा होती तो यह कोठा नहीं होता

* मनाज़िर  -  नज़ारे
* जीनत  -  शोभा
है मेरे दिल पर हक़ किसका हुकूमत कौन करता है

है मेरे दिल पर हक़ किसका हुकूमत कौन करता है
इबादतगाह है किसकी इबादत कौन करता है

वो चिड़ियाँ थीं दुआएँ पढ़ के जो मुझको जगाती थीं
मैं अक्सर सोचता था ये तिलावत* कौन करता है

चरागों से हवा की दुश्मनी थी, घर जला मेरा
सज़ाएं किस को मिलती हैं शरारत कौन करता है

यहाँ से रेल की पटरी बहुत नज़दीक है राना
चलो ये फैसला कर लें मुहब्बत कौन करता है

* तिलावत - कुरान पढ़ना

खून रुलावाएगी ये जंगल परस्ती एक दिन

खून रुलावाएगी ये जंगल परस्ती एक दिन
सब चले जायेंगे खाली करके बस्ती एक दिन

चूसता रहता है रस भौंरा अभी तक देख लो
फूल ने भूले से की थी सरपरस्ती* एक दिन

देने वाले ने तबीयत क्या अज़ब दी है उसे
एक दिन ख़ानाबदोशी, घर गिरस्ती एक दिन

कैसे-कैसे लोग दस्तारों के मालिक हो गए
बिक रही थी शहर में थोड़ी सी सस्ती एक दिन

तुमको ऐ वीरानियों शायद नहीं मालूम है
हम बनाएँगे इसी सहरा को बस्ती एक दिन

रोज़ो-शब हमको भी समझाती है मिट्टी क़ब्र की
ख़ाक में मिल जायेगी तेरी भी हस्ती एक दिन

* सरपरस्ती - संरक्षण में लेकर सहायता करना

किसी के ज़ख्म पर चाहत से पट्टी कौन बान्धेगा

किसी के ज़ख्म पर चाहत से पट्टी कौन बान्धेगा
अग़र बहने नही होगी तो राखी कौन बान्धेगा

जहा लडकी कि इज्ज़त लुटना एक खेल बन जाए
वहा पर ऐ कबुतर तेरे चिट्ठी कौन बान्धेगा

ये बाजारे सियासत है यहाँ खुद्दारिया कैसी
सभी के हाथ मे कांसा* है मुट्ठी कोन बान्धेगा

तुम्हारी महफ़िलो मे हम बडे बुढे जरूरी है
अग़र हम हि नही होंगे तो पगडी कौन बान्धेगा

मुकद्दर देखीए वो बाँझ भी है और बुढी भी
हमेशा सोचती रहती है गठरी कौन बांधेगा

* कांसा - भिक्षा पात्र

दुनिया के सामने भी हम अपना कहे जिसे

दुनिया के सामने भी हम अपना कहे जिसे
एक ऐसा दोस्त हो की सुदामा कहे जिसे

चिड़िया की आँख में नहीं पुतली में जा लगे
ऐसा निशाना हो की निशाना कहे जिसे

दुनिया उठाने आए मगर हम नहीं उठे
सज़दा भी हो तो ऐसा की सज़दा कहे जिसे

फिर कर्बला के बाद दिखाई नहीं दिया
ऐसा कोई भी शख्स की प्यासा कहे जिसे

कल तक इमारतों में था मेरा शुमार भी
अब ऐसा हो गया हूँ की मलबा कहे जिसे

मैं हूं अग़र चराग़ तो जल जाना चाहिये

मैं हूं अग़र चराग़ तो जल जाना चाहिये
मैं पेड़ हूं तो पेड़ को फ़ल जाना चाहिये

रिश्तों को क्यूं उठाये कोई बोझ की तरह
अब उसकी जिन्दगी से निकल जाना चाहिये

जब दोस्ती भी फ़ूंक के रखने लगे कदम
फ़िर दुश्मनी तुझे भी संभल जाना चाहिये

मेहमान अपनी मर्जी से जाते नहीं कभी
तुम को मेरे ख्याल से कल जाना चाहिये

इस घर को अब हमारी जरूरत नहीं रही
अब आफ़ताबे-उम्र को ढ़ल जाना चाहिये

किरदार पर गुनाह की कालिख लगा के हम

किरदार पर गुनाह की कालिख लगा के हम
दुनिया से जा रहे है यह दौलत कमा के हम

जितनी तव्क्कुआत जमाने को हम से है
उतनी तो उम्र भी नहीं लाए लिखा के हम

क्या जाने कब उतार पे आ जाए ये पतंग
अब तक तो उड़ रहे है सहारे हवा के हम

फिर आसुओ ने हमको निशाने पे रख लिया
एक बार हस दिए थे कभी खिलखिला के हम

कुछ और बढ़ गया है अँधेरा पड़ोस का
शर्मिंदा हो रहे है दिये को जला के हम

हम कोहकन मिजाजो से आगे की चीज़ है
ढूंढेगे मोतियों को समुन्दर सुखा के हम

मोहब्बत में तुम्हे आंसू बहाना नहीं आया

मोहब्बत में तुम्हे आंसू बहाना नहीं आया
बनारस में रहे और पान खाना नहीं आया

न जाने लोग कैसे मोम कर देते है पत्थर को
हमें तो आप को भी गुदगुदाना नहीं आया

शिकारी कुछ भी हो इतना सितम अच्छा नहीं होता
अभी तो चोंच में चिड़िया के दाना तक नहीं आया

ये कैसे रास्ते से लेके तुम मुझको चले आए
कहा का मैकदा इक चायखाना तक नहीं आया

ऐ अहले-सियासत ये क़दम रुक नहीं सकते

ऐ अहले-सियासत ये क़दम रुक नहीं सकते
रुक सकते हैं फ़नकार क़लम रुक नहीं सकते

हाँ होश यह कहता है कि महफ़िल में ठहर जा
ग़ैरत का तकाज़ा है कि हम रुक नहीं सकते

यह क्या कि तेरे हाथ भी अब काँप रहे हैं
तेरा तो ये दावा था सितम रुक नहीं सकते

अब धूप हक़ीक़त की है और शौक़ की राहें
ख़ाबों की घनी छाँव में हम रुक नहीं सकते

हैं प्यार की राहों में अभी सैकड़ों पत्थर
रफ़्तार बताती है क़दम रुक नहीं सकते

एक न इक रोज़ तो होना है ये जब हो जाये

एक न इक रोज़ तो होना है ये जब हो जाये
इश्क़ का कोई भरोसा नहीं कब हो जाये

हममें अजदाद* की बू-बास नहीं है वरना
हम जहाँ सर को झुका दें वो अरब हो जाये

वो तो कहिये कि रवादारियाँ बाक़ी हैं अभी
वरना जो कुछ नहीं होता है वो सब हो जाये

ईद में यूँ तो कई रोज़ हैं बाक़ी लेकिन
तुम अगर छत पे चले जाओ ग़ज़ब हो जाये

सारे बीमार चले जाते हैं तेरी जानिब
रफ़्ता रफ़्ता* तेरा घर भी न मतब* हो जाये

* अज़दाद  =  पूर्वज
* रफ़्ता - रफ़्ता  =  धीरे - धीरे
* मतब  =  अस्पताल

इस पेड़ में इक बार तो आ जाए समर भी

इस पेड़ में इक बार तो आ जाए समर भी
जो आग इधर है कभी लग जाए उधर भी

कुछ मेरी अना भी मुझे झुकने नहीं देती
कुछ इसकी इजाज़त नहीं देती है कमर भी

पहले मुझे बाज़ार में मिल जाती थी अकसर
रुसवाई ने अब देख लिया है मेरा घर भी

इस वास्ते जी भर के उसे देख न पाए
सुनते हैं कि लग जाती है अपनों की नज़र भी

कुछ उसकी तवज्जो भी नहीम होता है मुझपर
इस खेल से कुछ लगने लगा है मुझे डर भी

उस शहर में जीने की सज़ा काट रहा हूँ
महफ़ूज़ नहीं है जहाँ अल्लाह का घर भी

ऐ अँधेरे देख ले मुँह तेरा काला हो गया

ऐ अँधेरे देख ले मुँह तेरा काला हो गया
माँ ने आँखें खोल दीं घर में उजाला हो गया

राई के दाने बराबर भी न था जिसका वजूद
नफ़रतों के बीच रह कर वह हिमाला हो गया

एक आँगन की तरह यह शहर था कल तक मगर
नफ़रतों से टूटकर मोती की माला हो गया

शहर को जंगल बना देने में जो मशहूर था
आजकल सुनते हैं वो अल्लाह वाला हो गया

हम ग़रीबों में चले आए बहुत अच्छा किया
आज थोड़ी देर को घर में उजाला हो गया

मर्ज़ी-ए-मौला मौला जाने

मर्ज़ी-ए-मौला मौला जाने
मैं क्या जानूँ रब्बा जाने

डूबे कितने अल्लाह  जाने
पानी कितना दरिया जाने

आँगन की तक़सीम का क़िस्सा
मैं जानूँ या बाबा जाने

पढ़ने वाले पढ़ ले चेहरा
दिल का हाल तो अल्लाह जाने

क़ीमत पीतल के घुंघरू की
शहर का सारा सोना जाने

हिजरत करने वालों का ग़म
दरवाज़े का ताला जाने

गुलशन पर क्या बीत रही है
तोता जाने मैना जाने
आँखों को इंतज़ार की भट्टी पे रख दिया

आँखों को इंतज़ार की भट्टी पे रख दिया
मैंने दिये को आँधी की मर्ज़ी पे रख दिया

आओ तुम्हें दिखाते हैं अंजामे-ज़िंदगी
सिक्का ये कह के रेल की पटरी पे रख दिया

फिर भी न दूर हो सकी आँखों से बेवगी
मेंहदी ने सारा ख़ून हथेली पे रख दिया

दुनिया क्या ख़बर इसे कहते हैं शायरी
मैंने शकर के दाने को चींटी पे रख दिया

अंदर की टूट -फूट छिपाने के वास्ते
जलते हुए चराग़ को खिड़की पे रख दिया

घर की ज़रूरतों के लिए अपनी उम्र को
बच्चे ने कारख़ाने की चिमनी पे रख दिया

पिछला निशान जलने का मौजूद था तो फिर
क्यों हमने हाथ जलते अँगीठी पे रख दिया

मुख़्तसर होते हुए भी ज़िन्दगी बढ़ जायेगी

मुख़्तसर* होते हुए भी ज़िन्दगी बढ़ जायेगी
माँ की ऑंखें चूम लीजै रौशनी बढ़ जायेगी

मौत का आना तो तय है मौत आयेगी मगर
आपके आने से थोड़ी ज़िन्दगी बढ़ जायेगी

इतनी चाहत से न देखा कीजिए महफ़िल में आप
शहर वालों से हमारी दुशमनी बढ़ जायेगी

आपके हँसने से खतरा और भी बढ़ जायेगा
इस तरह तो और आँखों की नमी बढ़ जायेगी

बेवफ़ाई खेल है इसको नज़र अंदाज़ कर
तज़किरा करने से तो शरमिन्दगी बढ़ जायेगी

* मुख़्तसर  =  छोटी
* तज़किरा  =  चर्चा

घरों को तोड़ता है ज़ेहन में नक़्शा बनाता है

घरों को तोड़ता है ज़ेहन में नक़्शा बनाता है
कोई फिर ज़िद की ख़ातिर शहर को सहरा बनाता है

ख़ुदा जब चाहता है रेत को दरिया बनाता है
फिर उस दरिया में मूसा* के लिए रस्ता बनाता है

जो कल तक अपनी कश्ती पर हमेशा अम्न लिखता था
वो बच्चा रेत पर अब जंग का नक़्शा बनाता है

मगर दुनिया इसी बच्चे को दहशतगर्द* लिक्खेगी
अभी जो रेत पर माँ-बाप का चेहरा बनाता है

कहानीकार बैठा लिख रहा है आसमानों पर
ये कल मालूम होगा किसको अब वो क्या बनाता है

कहानी को मुसन्निफ़* मोड़ देने के लिए अकसर
तुझे पत्थर बनाता है मुझे शीशा बनाता है

*मूसा  = मूसा यहूदी धरम के संस्थापक माने जाते है।  इनका जन्म प्राचीन मिस्र में एक यहूदी माता-पिता के घर हुआ था। उस जमाने में मिस्र के फराओं (राजा) का यहूदियों में आतंक था। मूसा की माँ को उसकी जान बचाने के लिए उसे नील नदी में बहाना पड़ा था पर खुदा की रेहमत से वो बालक फराओ की महारानी को मिला इस तरह से मूसा एक राजकुमार बन गया पर बड़े होने पर उसे पता चला की वो एक यहूदी है और उसका देश फराओ का गुलाम है जिस पर फराओ अत्याचार करता है। आगे चलकर मूसा का एक पहाड़ पर परमेश्वर से साक्षात्कार हुआ और परमेश्वर की मदद से उन्होंने फ़राओ को हराकर यहूदियों को आज़ाद कराया और मिस्र से एक नयी भूमि इस्राइल पहुँचाया। इसके बाद मूसा ने इस्राइल को ईश्वर द्वारा मिले "दस आदेश" दिये जो आज भी यहूदी धर्म का प्रमुख स्तम्भ है।
*दहशतगर्द  =  आतंकवादी
*मुसन्निफ़  =  लेखक

दामन को आँसुओं से शराबोर कर दिया

दामन को आँसुओं से शराबोर कर दिया
उसने मेरे इरादे को कमज़ोर कर दिया

बारिश हुई तो झूम के सब नाचने लगे
मौसम ने पेड़-पौधों को भी मोर कर दिया

मैं वो दिया हूँ जिससे लरज़ती* है अब हवा
आँधी ने छेड़-छेड़ के मुँहज़ोर कर दिया

इज़हार-ए-इश्क़ ग़ैर-ज़रूरी था , आपने
तशरीह* कर के शेर को कमज़ोर कर दिया

उसके हसब-नसब* पे कोई शक़ नहीं मगर
उसको मुशायरों ने ग़ज़ल-चोर कर दिया

उसने भी मुझको क़िस्से की सूरत भुला दिया
मैंने भी आरज़ूओं को दरगोर कर दिया

लरज़ना  =  कांपना, लड़खड़ाना
तशरीह  =  व्याख्या
हसब-नसब  =  वंश, आनुवंशिकता

नहीं होती अगर बारिश तो पत्थर हो गए होते

नहीं होती अगर बारिश तो पत्थर हो गए होते
ये सारे लहलहाते खेत बंजर हो गए होते

तेरे दामन से सारे शहर को सैलाब से रोका
नहीं तो मेरे ये आँसू समन्दर हो गए होते

तुम्हें अहले सियासत* ने कहीं का भी नहीं रक्खा
हमारे साथ रहते तो सुख़नवर* हो गए होते

अगर आदाब कर लेते तो मसनद* मिल गई होती
अगर लहजा बदल लेते गवर्नर हो गए होते

अहले सियासत  =  सियासत करने वाले लोग
सुख़नवर  =  कवि, शायर
मसनद  =   अमीरों के बैठने की गद्दी

थकी-मांदी हुई बेचारियाँ आराम करती हैं

थकी-मांदी हुई बेचारियाँ आराम करती हैं
न छेड़ो ज़ख़्म को बीमारियाँ आराम करती हैं

सुलाकर अपने बच्चे को यही हर माँ समझती है
कि उसकी गोद में किलकारियाँ आराम करती हैं

किसी दिन ऎ समुन्दर झांक मेरे दिल के सहरा में
न जाने कितनी ही तहदारियाँ आराम करती हैं

अभी तक दिल में रोशन हैं तुम्हारी याद के जुगनू
अभी इस राख में चिन्गारियाँ आराम करती हैं

कहां रंगों की आमेज़िश* की ज़हमत* आप करते हैं
लहू से खेलिये पिचकारियाँ आराम करती हैं

आमेज़िश  =  प्रकटन
ज़हमत  =  कष्ट

समाजी बेबसी हर शहर को मक़्तल बनाती है

समाजी बेबसी हर शहर को मक़्तल* बनाती है
कभी नक्सल बनाती है कभी चम्बल बनाती है

ज़रा सी बात है लेकिन हवा को कौन समझाए
दिये से मेरी माँ मेरे लिए काजल बनाती है

खिलोनो की दुकाने क्यूँ मुझे आवाज़ देती हैं
बता ऐ मुफलिसी* तू क्यू मुझे पागल बनाती है

सुना है जब से तय होते हैं रिश्ते आसमानो में
वो पगली उंगलियो से रोज़ो-शब* बादल बनाती है

हवस महलों में रहकर भी बहुत मायूस रहती है
क़नाअत* घास को छु कर उसे मखमल बनाती है

बहुत दुश्वार* है प्यारे ग़ज़ल में नादिराकारी
ज़रा सी भूल अच्छे शेर को मोहमल* बनती है

मक़्तल  =  वध स्थान, वध भूमि
मुफलिसी  =  गरीबी
रोज़ो-शब  =  क़यामत और हश्र तक दिन-रात
क़नाअत  =  संतोष
दुश्वार  =  मुश्किल
नादिराकारी  =  पूर्णता की कला (आर्ट ऑफ़ परफेक्शन)
मोहमल  =  निरर्थक

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