सौ में सत्तर आदमी फ़िलहाल जब नाशाद है
सौ में सत्तर आदमी फ़िलहाल जब नाशाद* है
दिल पे रख के हाथ कहिए देश क्या आज़ाद है
कोठियों से मुल्क के मेआर* को मत आंकिए
असली हिंदुस्तान तो फुटपाथ पे आबाद है
जिस शहर में मुंतजिम* अंधे हो जल्वागाह के
उस शहर में रोशनी की बात बेबुनियाद है
ये नई पीढ़ी पे मबनी* है वहीं जज्मेंट दे
फल्सफा गांधी का मौजूं* है कि नक्सलवाद है
यह गजल मरहूम मंटों की नजर है, दोस्तों
जिसके अफसाने में ‘ठंडे गोश्त’ की रुदाद* है
* नाशाद - उदास, दुखी
* मेआर - मापदंड, रूतबा
* मुन्तज़िम - व्यवस्थापक
* मबनी - निर्भर
* मौजूं - उचित, उपयुक्त
* रूदाद - विवरण, वृतांत
अदम गोंडवी