1हे गणपति निज भक्त को, दो ऐसी निज भक्ति
काव्य सृजन में ही रहे, जीवन-भर अनुरक्ति।
काव्य सृजन में ही रहे, जीवन-भर अनुरक्ति।
2हे लम्बोदर है तुम्हें, बारंबार प्रणाम
पूर्ण करो निर्विघ्न प्रभु ! सकल हमारे काम।
पूर्ण करो निर्विघ्न प्रभु ! सकल हमारे काम।
3मेरे विषय-विकार जो, बने हृदय के शूल
हे प्रभु मुझ पर कृपा कर, करो उन्हें निर्मूल।
हे प्रभु मुझ पर कृपा कर, करो उन्हें निर्मूल।
4गणपति महिमा आपकी, सचमुच बहुत उदार
तुम्हें डुबोते हर बरस, उनको करते पार।
5मातु शारदे दो हमें, ऐसा कुछ वरदान
जो भी गाऊँ गीत मैं, बन जाये युग-गान।
जो भी गाऊँ गीत मैं, बन जाये युग-गान।
6शंकर की महिमा अमित, कौन भला कह पाय
जय शिव-जय शिव बोलते, शव भी शिव बन जाय।
जय शिव-जय शिव बोलते, शव भी शिव बन जाय।
7मैं भी तो गोपाल हूँ, तुम भी हो गोपाल
कंठ लगाते क्यों नहीं, फिर मुझको नंदलाल।
कंठ लगाते क्यों नहीं, फिर मुझको नंदलाल।
8स्वयं दीप जो बन गया, उसे मिला निर्वाण
इसी सूत्र को वरण कर, बुद्ध बने भगवान।
इसी सूत्र को वरण कर, बुद्ध बने भगवान।
9गुरु ग्रन्थ के श्रवण से, मिटें सकल त्रयताप
ये मन्त्रों का मन्त्र है, हैं ये शब्द अमाप।
ये मन्त्रों का मन्त्र है, हैं ये शब्द अमाप।
10नानक और कबीर-सा, सन्त न जन्मा कोय
दोयम, त्रेयम, चतुर्थम, सब हो गए अदोय।
दोयम, त्रेयम, चतुर्थम, सब हो गए अदोय।
11मीरा ने संसार को, दिया नाचता धर्म
उसके स्वर में है छुपा, वंशीधर का मर्म।
12भक्तों में कोई नहीं, बड़ा सूर से नाम
उसने आँखों के बिना, देख लिये घनश्याम
उसने आँखों के बिना, देख लिये घनश्याम
13तुलसी का तन धारकर, भक्ति हुई साकार
उनको पाकर राममय, हुआ सकल संसार।
उनको पाकर राममय, हुआ सकल संसार।
14मर्यादा और त्याग का, एक नाम है राम
उसमें जो मन रम गया, रहा सदा निष्काम।
उसमें जो मन रम गया, रहा सदा निष्काम।
15अपना ही हित साधते, सारे देश विशेष
सर्व-भूत-हित-रत सदा, वो है भारत देश।
सर्व-भूत-हित-रत सदा, वो है भारत देश।
16जो प्रकाश की साधना, करता आठो याम
आभा रत को जोड़कर, बनता भारत नाम।
आभा रत को जोड़कर, बनता भारत नाम।
17हमने इक परिवार ही, माना सब संसार
सदा सदा से हम रहे, सभी द्वैत के पार।
सदा सदा से हम रहे, सभी द्वैत के पार।
18आत्मा के सौन्दर्य का, शब्द रूप है काव्य
मानव होना भाग्य है, कवि होना सौभाग्य।
मानव होना भाग्य है, कवि होना सौभाग्य।
19दोहा वर है और है, कविता वधू कुलीन
जब इनकी भाँवर पड़ी, जन्मे अर्थ नवीन।
जब इनकी भाँवर पड़ी, जन्मे अर्थ नवीन।
20निर्धन और असहाय थे, जब सब भाव-विचार
दोहे ने आकर किया, उन सबका श्रृंगार।
दोहे ने आकर किया, उन सबका श्रृंगार।
21गागर में सागर भरे, मुँदरी में नवरत्न
अगर न ये दोहा करे, है सब व्यर्थ प्रयत्न।
अगर न ये दोहा करे, है सब व्यर्थ प्रयत्न।
22जो जन जन के होंठ पर, बसे और रम जाय
ऐसा सुन्दर दोहरा, क्यों न सभी को भाय।
ऐसा सुन्दर दोहरा, क्यों न सभी को भाय।
23झूठी वो अनुभूति है, हुआ न जिसका भोग
बिन इसके कवि-कर्म तो, है बस क्षय का रोग।
बिन इसके कवि-कर्म तो, है बस क्षय का रोग।
24दिल अपना दरवेश है, धर गीतों का भेष
अलख जगाता फिर रहा, जा-जा देस विदेश।
अलख जगाता फिर रहा, जा-जा देस विदेश।
25ना तो मैं भवभूत हूँ, ना मैं कालीदास
सिर्फ प्रकाशित कर रहा, उनका काव्य प्रकाश।
सिर्फ प्रकाशित कर रहा, उनका काव्य प्रकाश।
26प्रलय हुई जब-जब हुई, गीतों की लय वक्र
सदा गीत की लय रही, सकल सृष्टि का चक्र।
27
सरि-सागर-अम्बर-अवनि, सब लय से गतिमान
लय टूटे जब प्राण की, हो जीवन अवसान।
लय टूटे जब प्राण की, हो जीवन अवसान।
28अपनी भाषा के बिना, राष्ट्र न बनता राष्ट्र
वसे वहाँ महाराष्ट्र या, रहे वहाँ सौराष्ट्र।
वसे वहाँ महाराष्ट्र या, रहे वहाँ सौराष्ट्र।
29हिन्दी विन्दी भाल की, उर्दू कुण्डल केश
जब ये दोनों ही सजें, सुन्दर दीखे देश।
जब ये दोनों ही सजें, सुन्दर दीखे देश।
30गीत वही है सुन जिसे, झूमे सब संसार
वर्ना गाना गीत का, बिलकुल है बेकार।
वर्ना गाना गीत का, बिलकुल है बेकार।
31बड़े जतन के बाद रे ! मिले मनुज की देह
इसको गन्दा कर नहीं, है ये प्रभु का गेह।
इसको गन्दा कर नहीं, है ये प्रभु का गेह।
32अन्तिम घर संसार में, है सबका शमशान
फिर इस माटी महल पर, क्यों इतना अभिमान।
फिर इस माटी महल पर, क्यों इतना अभिमान।
33जो आए ठहरे यहाँ, थे न यहाँ के लोग
सबका यहाँ प्रवास है, नदी-नाव संयोग।
सबका यहाँ प्रवास है, नदी-नाव संयोग।
34रुके नहीं कोई यहाँ, नामी हो कि अनाम
कोई जाये सुबह को, कोई जाये शाम।
कोई जाये सुबह को, कोई जाये शाम।
35रोते-रोते जायँ सब, हँसता जाय न कोय
हँसता-हँसता जाय तो, उसका जनम न होय।
हँसता-हँसता जाय तो, उसका जनम न होय।
36मिटती नहीं सुगंध रे ! भले झरें सब फूल
यही सार अस्तित्व का, यही ज्ञान का मूल।
यही सार अस्तित्व का, यही ज्ञान का मूल।
37फल तेरे हाथों नहीं, कर्म है तेरे हाथ
करता चल सत्कर्म तू, सोच न फल की बात।
करता चल सत्कर्म तू, सोच न फल की बात।
38तन तो एक सराय है, आत्मा है मेहमान
तन को अपना मानकर, मोह न कर नादान।
तन को अपना मानकर, मोह न कर नादान।
39है गिरने को ही बना, तन का सुन्दर कोट
देख काल है कर रहा, पल-पल इस पर चोट।
देख काल है कर रहा, पल-पल इस पर चोट।
40श्वेत-श्याम दो रंग के, चूहे हैं दिन-रात
तन की चादर कुतरते, पल-पल रहकर साथ।
तन की चादर कुतरते, पल-पल रहकर साथ।
41बिखरी तो रचना बनी, एक नवीना सृष्टि
सिमटी जब इक बिन्दु में, वही बन गई व्यष्टि।
सिमटी जब इक बिन्दु में, वही बन गई व्यष्टि।
42 प्रेय-श्रेय के मध्य है, बस इक झीना तार
प्रेम-वासना मोक्ष सब, हैं इसके व्यापार।
प्रेम-वासना मोक्ष सब, हैं इसके व्यापार।
43लोभ न जाने दान को, क्रोध न जाने ज्ञान
हो दोनों से मुक्ति जब, हो अपनी पहचान।
हो दोनों से मुक्ति जब, हो अपनी पहचान।
44चलती चाकी काल की, पिसे सकल संसार,
लिपट गए जो मूठ से, पिसे न एकहु बार।*
लिपट गए जो मूठ से, पिसे न एकहु बार।*
45धन तो साधन मात्र है, नहीं मनुज का ध्येय
ध्येय बनेगा धन अगर, जीवन होगा हेय।
ध्येय बनेगा धन अगर, जीवन होगा हेय।
46जिस कारण कंदील ये, धरे अनेकों रूप
स्थिर रहती ज्योति वो, हर दम एक स्वरूप।
स्थिर रहती ज्योति वो, हर दम एक स्वरूप।
47धरती घूमे कील पर, घूमे किन्तु न कील
ब्रह्म ज्योति सम थिर सदा, माया सम कंदील।
ब्रह्म ज्योति सम थिर सदा, माया सम कंदील।
§ कबीर पुत्र कमाल का वक्तव्य
48हस्ताक्षर तेरे स्वयम्, भाग्य-नियति के लेख
औरों को मत दोष दे, अपने अवगुण देख।
औरों को मत दोष दे, अपने अवगुण देख।
49मिट्टी का विस्तार है, ये सारा संसार
मिट्टी को मत खूँद रे, कर तू इससे प्यार
मिट्टी को मत खूँद रे, कर तू इससे प्यार
50मिट्टी तो मिटती नहीं, बदले केवल रूप
कभी बने ये कोयला, हीरा कभी अनूप।
कभी बने ये कोयला, हीरा कभी अनूप।
51दृष्टा दृश्य न भेद कुछ, है मन का भ्रम-जाल
मन को कर ले अमन तो, भेद मिटे तत्काल।
मन को कर ले अमन तो, भेद मिटे तत्काल।
52गति-यति का ही नाम है, जनम-मरण का खेल
चलती-रुकती, दौड़ती, जैसे कोई रेल।
चलती-रुकती, दौड़ती, जैसे कोई रेल।
53तन तो ये साकेत है, और हृदय है राम
श्वास-श्वास में गूँजता, पल-पल उसका नाम।
श्वास-श्वास में गूँजता, पल-पल उसका नाम।
No comments:
Post a Comment